Wednesday, September 14, 2016

राधा ने मारी मिस कॉल,कन्हैया बोले हैलो हैलो"

राधा ने मारी मिस कॉल,कन्हैया बोले हैलो हैलो

बगल के मंदिर मेँ रात कुछ महिलाएँ भजन गा रही थीँ"राधा ने मारी मिस कॉल,कन्हैया बोले हैलो हैलो"।सुना तो कान नहीँ,बदन का रोआं रोआं खड़ा हो गया।ये भजन था..।जी हाँ ये आज के जमाने का भजन है,ये श्रद्धा का 4G संस्करण है।ये भक्ति की ऐनरॉयड पीढ़ी है।विद्यापति के कृष्ण जीयो के कॉल ड्राप तक आ गये।सूरदास के कृष्ण दोहे से निकल मेरे कान्हा डिस्को डांसर के भजनफूल सांग तक पहुँच चुके हैँ।दुनिया कहते नहीँ थकती कि भगवान दुनिया चलाता है,वो ही विधी नियंता है।पर भगवान ने दुनिया कहाँ बदली,बदला तो हमने है भगवान को।जब चाहा उसकी सूरत बदल दी,जब चाहा उसकी सीरत बदल दी।शिव हड़प्पा मेँ योगी थे,चोलोँ ने नर्तक नटराज बना दिया, हमने गंजेड़ी और सीरियल वालोँ ने बॉडी बिल्डर हीरो टाईप,एकदम देवताओँ मेँ नाना पाटेकर जैसी झक्की छवि गढ़ दी।हमने कान्हा को माखन खिलाते खिलाते इस्कॉन के मंदिर मेँ जन्माष्टमी मेँ केक खिला दिया।गणेश चूहे से उतर बाईक पर स्थापित होने लगे।सरस्वती माता से वीणा ले गिटार दे दिया हमने।राम तिरपाल मेँ रह ले रहे हैँ,ये जानते हुए भी कि देश मेँ उनकी ही बनाई सरकार है।पर ईश्वर सब एडजस्ट कर रहे हैँ,करना पड़ता है वर्ना किसी ने सही कहा था"हर सांस ये कहती है हम हैँ तो खुदा भी है" सो जब हम ही नही तो भगवान कैसा।इसलिए तो हमने बड़े निर्भिक हो जब चाहा,जैसा किया पर ईश्वर ने हमसे कोई शिकायत ना की ना हमेँ हड़काया।ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ होने के किस्से बाँचता मानव हर पल अपने सर्वश्रेष्ठ होने का प्रमाण देता रहा है।बताईये ऐसे मेँ जब यही मानव जो रोज अपने भगवान और अपनी भक्ति को अपडेट करता जा रहा है ऐसे मेँ कोई जब हजार बरस पहले की किताब"मनु स्मृति" पर रगड़बाजी करता है तो कितना दोगला लगने लगता है न।बताइये क्या हर चीज को अपने हिसाब से बदल देने वाला ये इंसान,संभव है कि हजार बरस पहले की किताब के अनुसार अपने सोच को नियंत्रित होने देगा?जाहिर है ऐसा असभंव है।घर मेँ रामायण रखी है,हमने उसे नही उतारा जीवन मेँ,कुरान नही उतर पाता जीवन मेँ पर क्या ये मनुस्मृति ही एकमात्र ऐसी जादुई किताब है क्या जो आज तक समाज और दुनिया को अपने पन्ने के हिसाब से चलाने को अड़ी रहती है,इसलिए आईए इसे जलायेँ..इसे मिटा देँ जिसे आज तक किसी सामान्य घर मेँ पाया तक भी न गया है।कहने का मतलब बस इतना है कि,अब आप और हम किसी लिखी जड़ किताब कॉपी से नही चलते..मानव ने हर युग मेँ अपनी खोज स्वयं की है।महिलाएँ हाजी अली की दरगाह पर पहुँच चुकीँ हैँ,किसी किताब के आयतो से अब उनके पाँव नही रूकने।ये दुनिया लिखि और थोपी जादुई किताबोँ से आगे निकल आई है।पर कुछ जमात ऐसी है जो कुरान और स्मृतियोँ के नाम पर अपने हितो का तांडव करती है और इतिहास की भोँथरी तलवार से वर्तमान और भविष्य की गर्दन रेतने का प्रयास करती रहती है।आदमी ईश्वर का स्वरूप बदल दे रहा है,गणेश लड्डु छोड़ पीज्जा खाने लगे,आदमी ने अराधना के अंदाज बदल दिये,अब जंगलोँ मेँ तपस्या की जगह कॉलनियोँ मेँ जगराता विथ शाही पनीर ने ले लिया है।लोग झुम झुम मंत्रमिक्ससांग्स गाते हैँ और प्रसाद मेँ बड़ी श्रद्धा से नान कुलचे छोले खाते हैँ।सब कुछ बदला पर जब नौबत खुद मेँ बदलाव की आती तो आदमी ने खुद को बदलने से इनकार कर दिया है।आदमी ने मना कर दिया है अपने दोगलेपन की परत को काट कर गिरा देने से।बताइये मैट्रो बनने के रास्ते मंदिर मस्जिद आता है तो आदमी उसे तोड़ सकता है,पर 21वीँ सदी के निर्माण के रास्ते बाधा बनके आते अपनी "पुरानी सोच" का ढर्रा तोड़ने मेँ आनाकानी करता है।तुरंत कुरान की आयत और वेद की ऋचाओँ को तलवार की तरह निकाल खड़ा हो जायेगा।जैसे पुराने ढहे मंदिर गिरा दिये जाते हैँ,मस्जिद गिरा दिये जाते हैँ वैसे ही पुरानी ढहती परँपरा को गिराता।पर गायेगा ये भजन का हिप हॉप और स्मृति,पुराण,कुरान तो इसने अपने इस्तेमाल के लिए रखेगा।बड़े जतन से रखता है बचा के इन पुरानी चीजोँ को पुराने ही रूप मेँ ये नये समय का आदमी।जय हो।

Wednesday, May 18, 2016

डिअर upsc के नाम नीलोत्पल का खुला खत

DEAR UPSC,

हाय..नमस्ते,

तुम्हेँ हिँदी मेँ ये पत्र लिख रहा हूँ।उम्मीद है किसी अच्छे हिँदी के ही जानकार से पढ़वाओगे।हम हिँदी माध्यम से तैयारी करने वाले एक प्रचंड आत्मविश्वासी छात्र हैँ जिसने एक बार फिर से अपने ईश्वर अल्लाह का नाम ले UPSC का फार्म डाल दिया है।ऐसा हम कई साल से करते आ रहे हैँ,ये जान के भी कि अभी अभी जो रिजल्ट तुमने दिया है उसमेँ लगभग डेढ़ हजार मेँ केवल 26 लोग हिँदी माध्यम के पास हो पाये हैँ।लेकिन तुम्हारे प्रति हमारी श्रद्धा का आलम ये है कि हमेँ इससे कोई फर्क नहीँ पड़ता कि कितने चयन हुए या आगे एक भी ना होँगे बल्कि पता नहीँ हम तो क्या खा के पैदा हुए,क्या जीवटता ले के धरा पे आये,किस अज्ञात् शक्ति के भरोसे इतनी निश्चिँतता से लबालब रहते हैँ कि जैसे ही तुम्हारा फार्म इंटरनेट पर लांच होता है हम आधे घंटे के अंदर सारे फार्म भर निवृत्त हो जाते हैँ और एक सजग"फार्मभरूआ"छात्र के रूप मेँ हमारी अंतिम ईच्छा यही रहती है कि बस PT परीक्षा का सेँटर"UPSC के बिल्डिँग"मेँ पड़ जाये क्योँकि हम जानते हैँ इसके आगे तुम कभी हमेँ उस बिल्डिँग मेँ पाँव रखने का मौका नहीँ देने वाले। डियर UPSC, वैसे तो तुमने 2011 से ही ये साफ कर दिया था कि अब हिँदी माध्यम वाले आला अधिकारी बनने का सपना ना देखेँ और जा के किरानी,कलर्क,चपरासी जैसे नौकरी के लिए आपस मेँ मुड़ी लड़ायेँ।तुम्हेँ चाहिए थे वैसे नमुने जो भले कम पढ़े होँ,कुछ भी पढ़े होँ पर अंग्रेजी मेँ पढ़े होँ और अंग्रेजी खाते पीते होँ। पर हम भी ठहरे ढीठ ओर थेथर।हमने सड़क पर आंदोलन छेड़ दिया।बोला सीसैट हटाओ।क्वालीफाईँग हो भी गया।अब फिर आंदोलन।बोले हैँ अटैँम्प्ट बढ़ाओ,शायद तुम एक दे भी दो।पर अब मुद्दा ये है कि हम क्या सीसैट क्वालिफाईँग और बढ़े अटैँम्पट ले के उसका लिट्टी सेँके।अबे जब तुमने ये तय ही कर रखा है कि हिँदी वालोँ से झाड़ु मरवाओ,बाहर करो ब्युरोक्रेसी से,तो हम 25 अटैम्प्ट लेकर भी क्या उखाड़ लेँगे जब तुमने हमेँ कब्र मेँ गाड़ देने का ही सोच रखा है यार।डियर UPSC, सच बताओ ये सब बस इसलिए है कि हिँदी माध्यम मेँ प्रतिभा समाप्त हो गई है?क्या 2010 तक जो लोग हिँदी वाले सलेक्ट हुए हैँ उनको छुट्टी दे सरकार इंग्लैंड से किराये पर अधिकारी ला काम चला रही है?क्या यही सीट भरने को जल्दी जल्दी एक एक बार मेँ एक हजार इँग्लिश माध्यम वाले को ले रहे हो।क्या हिँदी से सलेक्ट अधिकारी नौकरी मेँ वैदिक संस्कृत बोलते हैँ?क्या वो प्राकृत मेँ फाईल देखते हैँ?सच वो अंग्रेजी नही जानते क्या डियर?अच्छा छोड़ो, एक सच बताओ क्या अंग्रेजी मेँ बकलोल नहीँ पैदा होते?क्या इंग्लैँड मेँ भकचोन्हर नहीँ पैदा होते क्या?क्या बस भाषा ही योग्यता का आधार है क्या?क्या आज तक देश चलाने वाली भारतीय भाषाएँ अचानक से एकदम नपुंसक हो गई?सारी प्रतिभा मीटिँग कर भूत बन अंग्रेजी मीडियम मेँ शिफ्ट कर गईँ?क्या चेतन भगत राष्ट्रीय दार्शनिक मान लिया गया क्या? फिर ये सब क्या है डियर?सीधे सीधे क्योँ नहीँ कहते कि तुमको सिविल सेवक नहीँ बाबूगिरी और जीहुजुरी वाले "वेल बिहेब्ड,वेल ट्रेँड स्टॉफ"चाहिए।तुमको चाहिए वो अधिकारी जो किसी अधिकार की माँग ना करे और सेवा को कर्तव्य नहीँ बल्कि एक जॉब समझे।वो भावुक और जज्बाती नहीँ बल्कि पेशेवर धंधेबाज हो और फाईल को मंदिर नहीँ दुकान समझे जिसका सौदा किया जा सके।यार UPSC अगर केवल अंग्रेजी जानना ही मुद्दा था तो जब इटली से आयी सोनिया हिँदी सीख सकती तो क्या हम मसुरी जा अंग्रेजी ना सीख पाते?जब वीरेँद्र सहवाग जैसा कड़ा नजफगढ़ी अंग्रेजी सीख सकता है तो क्या एक आजमगढ़ी और प्रतापगढ़ी ना सीख पाता अंग्रेजी।जब दसवीँ फेल तेँदुलकर जरूरत पर अंग्रेजी जान गया तो IAS की कंपलसरी अंग्रेजी पास कर गया लड़का ना सीख पाता।छोड़ो ये सब बहाने।मामला अब क्लास और कल्चर का है डार्लिँग।हम ग्रामीण भारत के लड़के सच मेँ सेवा देने आते हैँ और इसी कारण हमारा पसीना महकता है बड़े साबोँ को.क्योकि हम जनसेवक होना चाहते हैँ,बाबूओँ के गुलाम नहीँ।और जिस अंग्रेजी वाले पर तुम इतराते हो ना,उसी मेँ से आये रोमन सैनी जैसे टॉपर तुम्हारी नौकरी को लात मार परीक्षा प्रणाली को खिलौना बना बिना पढ़े PT पास करने के ट्रिक बता रहा है यूट्युब पर।सोचो जिस सेवा मेँ जाने के लिए हम अपनी जिँदगी लगा देते हैँ एक ज्यादा अच्छी जिँदगी के लिए उसी सेवा को लात मार चले जाते हैँ अंकुर गर्ग और रोमन सैनी जैसे लोग।क्या एथिक्स देखा था उनमेँ सिविल सेवा का तुमने?कैसे जाँचा था उनकी जनसेवा की भावना को?कैसा कमजर्फ साक्षात्कार बोर्ड है तुम्हारा जो उन क्रेजी इंग्लिश एजुकेटेड टैलैँटेड युथ के अंदर बैठे सुविधाभोगी लाईफ की चाहत को नहीँ पकड़ पाया और उन्हेँ सिविल सेवा का टॉपर बना अपना मजाक बनवाया तुमने।सारा एथिक्स हिँदी मिडियम का जाँचते हो?हमारा रिकार्ड देखो..चाहे आँधी या तुफान आये पर अपनी सारी प्रतिभा नौकरी करने मेँ लगा दी,भागे नहीँ हम।सो सुनो डियर,ये टैलेँट का बहाना मत दो।खुब टैलैँट है हिँदी मीडियम मेँ और ये सिद्ध भी है पहले के रिजल्ट से।अपनी क्रेजी फैँसी अंग्रेजोफोबियाई कल्चर मेँ फँसी सोच से मुक्त हो जरा सुधार करो खुद मेँ।देश जलाने के लिए बारूद मत बटोरो तुम हमेँ व्यवस्था से बाहर करके।और हाँ अगर ये ही रवैया रखना चाहते हो तो सुनो अबकी जब एडमिट कार्ड भेजने का डेट आये न, तो घर बार का पता है ही तुम्हारे पास।प्लीज अबकी हमेँ एडमिट कार्ड मत भेजना,इसके बदले हमारे पिता को एक चिट्ठी भेज देना जिसमे लिख देना"कृपया अपने बेटे को घर वापस बुला लेँ,वो हिँदी माध्यम से पढ़ने वाला एक प्रतिभाशाली और योग्य अधिकारी बनने की क्षमता वाला छात्र है पर फिर भी किसी जन्म मेँ हम उसका सलेक्शन नहीँ करेँगे क्योँकि वो आगे चलके एक अच्छा सिविल सेवक बनना चाहता है जबकि हमेँ अच्छे जॉब करने वाले स्टॉफ बहाल करने हैँ।सो फालतु मेँ अपने योग्य बेटे बेटी के पीछे अपने सपने और पैसे खर्च ना करेँ-आपका UPSC अध्यक्ष,शाहजहाँ रोड,दिल्ली"।जय हो।

Tuesday, April 5, 2016

ये बच्चा जो नक्सली बन जाना चाहता है

एक दिन...किसी ऐसे गाँव से.. ऐसे बच्चे के लिए...."एक नक्सल हो चुकी कविता"-


ये बच्चा जो नक्सली बन जाना चाहता है,
असल मेँ खेलना चाहता है खाना चाहता है।।


आप इनके पेट मेँ गुदगुदी करके तो देखिये,
ये भी खुशी से लोट जाना चाहता है।।

इन्हेँ पुचकारिये और दुलार से सर पे हाथ रख तो पूछिए,
ये बहुत कुछ बताना चाहता है।।

इनके हाथोँ मेँ कुछ खिलौने धर के तो देखिये,
ये भी चाबी से गाड़ी चलाना चाहता है।।

इनके चेहरे से पोँछ कर देखिये मायूसी की धुल,
ये भी खिलखिला के मुस्कुराना चाहता है।।

आप बनवाईये तो इसकी खातिर कुछ पढ़ने वाली स्कूलेँ,
ये भी याद करके एक कविता सुनाना चाहता है।।

इसकी हाथोँ मेँ कलम तो धराईए साहब,
ये भी कुर्ते पर स्याही गिराना चाहता है।।

आप थमाईए तो इसे भरोसे की इक डोर,
ये बच्चा पतंग उड़ाना चाहता है।।

खेलिये तो बैठ कभी इसके संग भी अंताक्षरी,
ये भी अपने मन का कुछ गाना चाहता है।।

शाम तक पिता कुछ कमा कर घर तो लौटे,
ये भी जेब से चंद सिक्के चुराना चाहता है।

अपने पिता की छाती पर बैठ पीट जिद की ढोल,
ये भी तो चिप्स कुरकुरे मँगाना चाहता है।

आप दीजिए तो इसे चलने का कोई चौड़ा सा रास्ता,
ये बहुत दूर आगे तक जाना चाहता है।।

हम दे के तो देखेँ इसे हौँसलोँ के पंख,
ये भी आसमान मेँ उड़ जाना चाहता है।।

हम इसे दिखायेँ तो कि ये दुनिया खुबसूरत है,
ये भी फूलोँ से तितली उड़ाना चाहता है।।

इसने भी कर ली है आज जीत अपनी मुट्ठी मेँ,
ये भी दौड़ के अपनी माँ को बताना चाहता है।।

हम इनकी खातिर काश कुछ कर तो पायेँ पहले,
मुझे यकिन है ये कुछ कर दिखाना चाहता है।।

ये बच्चा जो....।


जय हो।


Wednesday, March 23, 2016

JNU की ओर से नेवता

तमाम हो हल्ला के बीच JNU अपनी अक्षुण्ण परंपरा वाली होली मनाने को फिर तैयार है। JNU के अखिल भारतीय होली के सबसे विशिष्ट और अनोखे कार्यक्रम "चाट सम्मेलन" के लिए एक बार फिर से मुझे नेवता मिला है।कल 23 मार्च शाम से सुनने वाले की क्षमता तक पूरी रात JNU मेँ रहुँगा। JNU को लेकर पिछले कुछ महीने जो तरह तरह की राय बनी है उस संदर्भ मेँ एक अनुरोध जरूर करूँगा कि एक बार JNU की होली जरूर देख लेँ जहाँ "विविध भारती"झुम झुम गाती है,"अखंड भारत" गा गा नाचता है और राष्ट्रीयता कितनी मस्ती मेँ डुब के रंग खेलती है।कल आईए..इसे JNU की ओर से ही नेवता जानेँ।जय हो।

होली है

होली है!और होली मेँ किसी भी कीमत पर अपने गाँव से बाहर नही होना चाहता था पर जाने के भी सारे जतन कर लिये किसी भी कीमत पर जा भी नही पाया होली मेँ गाँव।होली जैसे खाँटी कादो-माटी-रंग वाले पर्व मेँ यहाँ दिल्ली जैसे धुल-धुँआ से बदरंग हुए महानगरोँ मेँ फँस जाना कचोटता तो है ही।न बातोँ मेँ रंग,ना आँख मेँ पानी..फिर भी होली है तो है ही यहाँ भी।अच्छा ऐसा कतई नहीँ है कि मुझे ये भ्रम है कि "गाँव की होली" कभी द्वापर युग मेँ कृष्ण के द्वारा खेली जाने वाली होली जैसी होती है और मेरा गाँव कोई गोकुल ग्राम या मथुरा सरीका है:-)।मुझे ये भी खुशफहमी नही कि,गाँव की होली सामाजिक समरसता का संदेश देती सच्चे भारत की मर्मस्पर्शी धारावाहिक टाईप होली होती है जहाँ हिँदु-मुस्लिम-सिख-ईसाई सब नाच नाच रंग उड़ा होली खेल रहे होँगे और मैँ दिल्ली मेँ बैठा उस अद्भुत् छटा का दर्शन करने से चूक गया हूँ और छटपट छटपट कर रहा हूँ सच्चे भारत के सच्चे गाँव जाने के लिए।यकिन मानिए कि हमरे गाँव जितना गाली गलौज और मार पीट होली मेँ होगा उतना सुडान मेँ गृहयुद्ध मेँ ना हो भैया।दारू पी जब बनिया, मारवाड़ी को गरियायेगा और बाभन सबको गरियायेगा तो ये मार्मिक दृश्य देख आप लजा जायेँगे।अच्छा मैँ इस टाईप का घिसा पिटा आउटडेटेड अफसोस भी नहीँ कर रहा कि,मुझे होली पर माँ के हाथोँ के बने पकवान याद आ रहे हैँ..अहा वो पूआ और अहा वो पिड़किया गुजिया और ठेकुआ।क्योँकि मेरे यहाँ ये एक परंपरा रही है कि किसी भी पर्व पर घर का कोई भी सदस्य खाना पकवान बनाने के रोजाना वाले चक्कर से मुक्त रहे और पर्वोँ पे मेरे यहाँ खाना बुलाये गये रसोईया लोग ही बनाते हैँ,जिसे ये शहर मेँ कैटरर कहा जाता है न।हाँ अगर आप पाक कला के शौकिन होँ तो उसका हाथ बँटा सकते हैँ पर खाना बनाना उस दिन रसोईये पर होता है।और तो और मेरी माँ खुद हमेशा फोन कर यहाँ दिल्ली के लिए भी कहती रहती है कि"कहीँ बढ़िया होटल मेँ जाके खाते पीते रहा करो,तरह तरह की चीजेँ खाते और खुद बनाने भी खीखते रहो,कुछ नया सीख आना तो फिर बनाना भी यहाँ"।घर पर माँ के हाथोँ का खाना खुब खाता हूँ,खुद भी बनाता हूँ,भाई भी बनाता है और बहनेँ भी।सो ये कोई बड़का अफसोस का मैटर नहीँ कि हाय रे होली का पकवान।माँ घर पर रहुँ तो हर दिन स्पेशल ही खिलाती है सो पर्व का इंतजार कम से कम खाने को तो नहीँ रहता।अच्छा फिर आखिर क्या है गाँव मेँ कि मन बेचैन हो जाता है ऐसे मौसम और पर्व मेँ गाँव जाने को।जी है कुछ।असल मेँ योजनाओँ का पैसा कितना भी हड़प लिया जाय,गाँव सड़क पानी बिजली बिना पीछे छुट जाये,लोग लड़े मरेँ या कटेँ,पढ़े ना पढ़ेँ..गाँव आपको मानव विकास सूचकांक मेँ शुन्य रेटिँग ही क्युँ ना दर्शाता हो पर आज भी गाँव के पास कुछ चीजेँ ऐसी है जो ना गाँव का मुखिया लुट पायेगा,ना नेता,विधायक,ना सांसद ना कोई अधिकारी ना कोई नक्सल।जी हाँ गाँव वाले घर के ठीक पीछे पलाश का जंगल,आम का पेड़ और उसमेँ फरे मंजर,उसपे बैठी कोयल,मेरे आँगन बेल का पेड़,नीम के पेड़ की साँय साँय हवा,शीशम की सुगंध,महुआ का पेड़,कचनार वाला फूल ये सब फागुन मेँ कैसे हो जाते हैँ ये फेसबुक पर लिखके बताना संभव नहीँ और इनसब को फागुन मेँ नजदीक जा के महसुस करना मेरे लिए क्युँ इतना जरूरी है ये शब्दोँ के मायाजाल से समझा पाना असंभव सा है।प्रकृति का ये जादू ना कवि मन की कल्पना है ना कलम की लफ्फाजी।सच कहता हूँ,घर के ठीक पीछे वाले पलाश के पेड़ोँ मेँ सारे पत्ते झड़ नीचे कालिन बिछा लेटे होँगे और पेड़ पर टेशू के दमकते लाल फूल ऐसे फूले होँगे मानो प्रकृति ने फाग मनाने के लिए लाल केसरिया शमियाना तान दिया हो।आम के गाछ पर आया मंजर ऐसे गमकता होगा जैसे प्रकृति इत्र छीँटक रही हो और उस मंजर वाले आमपत्ते के झुरमुट मेँ बैठी करिक्की कोयल कूहूँक कूहुँक "विविध भारती"गा रही होगी।सामने हाई स्कूल वाले अहाते मेँ शीशम का पत्ता झर झर कर "राग दुपहरिया" गाता होगा और कचनार के गुलाबी फूल गमक गमक कर खिलखिलाते होँगे।मेरे मुहल्ले से निकलते सटे ही आदिवासियोँ के मुहल्ले शुरू हो जाते हैँ और मिलने लगता है महुआ और सखुआ का बड़ा बड़ा गाछ..फिर पहाड़ तक जंगले जंगल।महुआ मेँ अभी धीरे धीरे फूल आया होगा..एक बार पुरवाई आती होगी तो आदमी नशे मेँ बिन प्याला मतवाला हो जाता होगा।मेरे आँगन मेँ ही बेल का गाछ है।आपने अगर बेल खाया हो और कभी उसकी खुशबु को भीतर खीँचा हो मान लिजिए की मुझे वो कस्तुरी से ज्यादा पागल करता है।अभिये से रोज पाँच सात बेल टप टप खुद ही गिरता होगा और छक के शर्बत चलता होगा घर मेँ।फागुन के ठीक बाद फाग खेला नीम भी कुछ दिन मीठा हो जायेगा जब चैत के आते उसमेँ हल्का हल्का ललहन लिये नरम नरम कोमल पत्तियाँ निकलेँगी।एक ऐसा मौसम जहाँ अभी "सुबह भीमसेन जोशी" और "शाम बिसमिल्ला खाँ" होती होँगी,उसे छोड़ ये दलेर मेँहदी के बल्ले बल्ले टाईप हल्ले गुल्ले जैसे दिन-रात वाले दिल्ली मेँ पड़ा हूँ तो भला काहे ना अफसोस करूँगा।पलाश का फूल पता नहीँ मुझे क्युँ इतना खीँचता है।मेरे बचपन का नाम भी कुछ दिन"पीपल पलाश" था।जब पलाश के पेड़ चढ़ डोल पत्ता खेलने लगा तो नीलोत्पल हो गया।पलाश,मंजर,महुआ शायद इसलिए भी मुझे खीँचते हैँ कि,किसी नक्सल के AK 47 की कोई गोली इन पलाश के फूल को ना झाड़ सकी आज तक,कोई सरकारी घोटाला आम का मंजर या महुआ का फूल नहीँ गटक सकता।हाँलांकि आम से लेकर महुआ और शीशम,सखुआ और सागवान सब लकड़ी माफियाओँ के हत्थे चढ़ कट भी रहे हैँ और काश हम इन्हेँ बचा पाते पर ये जहाँ जहाँ हैँ इनका जादू वही का वही है।हाँ,पलाश का जंगल अभी भी इन कसाईयोँ से बचा हुआ है।एक बार इन लकड़कट्टोँ को खोपचे मेँ लेने का मन है मेरा।कम से कम अपने ईलाके मेँ तो हड़काईये सकता हूँ।खैर जो भी हो..इन दिनोँ आपको पलाश के जंगलोँ को देखने झारखंड जरूर जाना चाहिए..तब मेरी बेचैनी आपको सहज समझ आती।मौका मिले तो देखिये जरूर एक बार आपसब जंगल मेँ जलते ये "पलाश के मशाल"।जय हो।

Friday, March 18, 2016

भारत माता- Bharat Mata

"भारत माता" फिर चर्चा मेँ है।भारत मेँ अचानक लिँगसंवेदी व्याकरण योद्धाओँ का एक वर्ग जागृत हो गया है जो जिसको मन तिसको पकड़ पूछ रहा है"बताओ भारत स्त्रीलिँग है या पुलिँग?भारत जब भरत के नाम पर नाम पड़ा तो फिर माता कैसे हो गया?"इसी तरह के तमाम पुलिँगात्मक तर्क देकर भारत माता को हूरकूच के देखा जा रहा है कि ये माता है या पिता या फिर मौसा या फूफा।ये वर्ग भारत को माता कहने के पक्ष मेँ नहीँ है तथा इससे इनके व्याकरणीय चेतना को ठेस पहुँची है।कुछ पुलिँगसंवेदक बुद्धिजीवि तो अपने जीभ पर पोटाश और निँबु घस उसे खरच कर ऊपर का एक लेयर हटा दे रहे हैँ जिससे बचपन मेँ कभी स्कूल कॉलेज मेँ मुर्ख भीड़ के साथ किसी 15 अगस्त या 26 जनवरी को भारत माता का नारा लगा दिया था।इनकी भी तब कोई गलती थोड़े थी।दशकोँ दशक से भारत को माता कहने वाले इस देश मेँ आज तक कोई साहित्य और व्याकरण का कोई गुढ़ जानाकार पैदा ही नही हो पाया था जो बता सकता कि भारत माता है या पिता।ये तो भला हो इन कुछ बुद्धिजीवियोँ का जो इस घनघोर व्याकरणीय गलती को सुधारने जन्म लिये हैँ और भारत का लिँग निर्णय कर वापस समाधी ले लेँगे।क्या बात है साब:-)आज जब सोचना ये चाहिए था कि हम कैसे"देश" मेँ रहते हैँ,हम सोच ये रहे हैँ कि"हम देश मेँ रहते हैँ कि देशाईन मेँ"।भारत देश है कि देशाईन?माता है कि पिता?ये है 21वीँ सदी के एक मुल्क का विमर्श!कितना लिँगनीय,सोचनीय और साथ साथ खाँटी निँदनीय विमर्श।लेकिन जब विमर्श छेड़ ही दिये हैँ तो सुन भी लिजिए।माँ शब्द का अर्थ जन्म देने से ले के पालने वाली,दुलारने वाली और अपने पूत के लिए सबकुछ सहने वाली के प्रतीक के रूप मेँ है।धरती को माँ कहने के पीछे यही भाव है कि हमेँ इसी के कोख से अन्न,खनिज से लेकर तमाम संसाधन प्राप्त होते हैँ।ये अपनी छाती पर नदी से लेकर पहाड़,जंगल सब लिये हमारी जरूरतोँ को पूरा करती है।यही अपने पालने मेँ हमेँ पालती है।आसमान नहीँ आता हमेँ खड़े होने की जमीन देने।ये धरती का माँ जैसा ही दिल है कि अपनी छाती पे लिये तैरती नदी से इंसानियत को साफ पानी पिलाती है और बदले मेँ उसी इंसानोँ से मिलता है उसे कचरा और जहर जिसे बिना कुछ कहे चुपचाप अपने रफ्तार से ढोहती है।कुछ ना कहती।जिन पेड़ोँ से फल देती है उसी को कटता देखती है।जिन पहाड़ो को प्रहरी बना खड़ा किया उसी को धमाको से चुर होते देखती है।धरती हमेँ कल्याण देती है,जीवन का सृजन करती है और खुद का विध्वंस सहती है।सारे पाप सहती ये धरती अगर अभी तक पूरी फट ना गई है और हम मेँ से आखिरी व्यक्ति तक उसमेँ समा ना गया है तो जान लिजिए कि ये "माँ" का ही दिल है जो सब कायम है,भुकंप,बाढ़,सुखा जैसी डाँटोँ के बावजूद।ऐसी धरती को पापा के जगह माँ कहना ज्यादा उपयुक्त स्वभाविक है और अगर एक देश और देशभक्ति के लिहाज से भी देखेँ तो माँ कहने पर भावुकता का जो उफान उठता है वो किसी भी बाधा से लड़ने और देश पर अपने को न्योछावर करने के लिए ज्यादा प्रेरित करता है।और ऐसा केवल भारत मेँ नहीँ।जर्मनी मेँ भी जर्मनवाद की प्रेरणा "मदर जर्मेनिया" से ज्यादा प्रबल हुई जबकि वहाँ बिस्मार्क जैसे डैडी भी थे जिनकी मुँछ ही हाथी के पूँछ से ज्यादा भारी थी,वो दिखता भी स्पार्टा योद्धा था।फ्रांस द्वारा दिया उपहार, अमेरिका मेँ स्टैच्यु ऑफ लिबर्टी भी स्वतंत्रता की देवी के ही रूप मेँ खड़ी है जबकि वहाँ पापा या देवोँ की कमी नहीँ थी।कुल मिला दुनिया मेँ भारत से इतर भी कई देश सदियोँ से ऐसा करते आये हैँ जहाँ देश या राष्ट्र को माँ स्वरूप मान देश और उसके नागरिकोँ के बीच एक मजबुत भावनात्मक रिश्ता कायम हो सके।अब आओ साब नाम पर।जब माता है तो नाम भरत नाम के लड़के पर कैसे?तो हे अक्ल से हिमालय "लिँगराज डैडीश्वरोँ", आप ये बताईये कि एक महिला आदरणीय पूर्व लोकसभा अध्यक्षा"मीरा कुमार" हो सकती हैँ,कुमारी नहीँ।पुरूष अभिनेता राज किरण,"किरण" हो सकते हैँ किरणा नही।पुरूष सुनील दत्त भवानी सिँह डाकू हो सकते हैँ।"तुलसी" तो सास भी कभी बहु थी की महिला और तुलसीदास नाम के पुरूष लेखक दोनोँ हो सकते हैँ तो ये बताईये एक माता का नाम भरत के नाम पर भारत माता या माँ भारती क्योँ नहीँ हो सकता।भाई साब कम से कम नाम रखने मेँ तो लिँगनिरपेक्षता रहने दीजिए बाकि तो लिँग के आधार पर भेदभाव जारी ही है।साब ये सब चोँचलेबाजी को छोड़ कहीँ उपयोगी जगह पर दिमाग लगाईये।भारत का लिँग तय करने की जगह ये तय करिये कि कहाँ कहाँ लिँग के आधार पर दुनिया कट रही है,आधी दुनिया पीछे छुट रही है।भारत के लिँगनिर्णय को छोड़ उस लिँग अनुपात पर सोचिए जहाँ 1000 पुरूष पर 940 ही महिलाएँ हैँ।60 महापुरूषोँ की जरूरत पर सोचिए महानुभवोँ।सोचिए उस हालात पर जहाँ हरियाणा जैसे राज्योँ मेँ पेट मेँ ही भ्रुणबच्चियाँ मार दी जाती हैँ और आदमी अपने बच्चोँ की मम्मी पैसे दे खरीद के ला रहा है।एक तरफ तो बुद्धिजीवियोँ को सदा शिकायत रहती है कि ये देश अपने ऐतिहासिक परंपरा से ही पितृसत्तात्मक रहा है,ऐसे मेँ जब देश का मानवीकरण माता के नाम पर कर मातृशक्ति का गुणगान करने की परंपरा आई है तो यही बुद्धिजीवि लिँग लिँग लिँगा का भजन गा सबसे बड़े लिँगयोद्धा के रूप मेँ भारत को उसका लिँगाधिकार दिलाने की मुहिम छेड़े हैँ।हम अब इनसे पूछ भारत को माता या पिता का तमगा तय करेँगे।बॉबी डार्लिँग को भी इनसे पूछ कर अपना लिँग परिवर्तन कराना चाहिए था।बंगाल की प्रतिभाशाली एथलिट पिँकी को भी ऐसे ही लिँगाधिकार कार्यकर्ता टाईप बुद्धिजीवियोँ ने पुरूष घोषित करवा दिया था और एक प्रतिभा को निगल गये।भारत माता के स्त्रीलिँग और पुलिँग जाँचने वालोँ..हुजुर आप पर भी हमसब की नजर है।आपसब का भी जाँचा जायेगा।अब आँख मुँद आपका भी थोड़े विश्वास कर लेँगे।नमन आप लिँगाधिकार कार्यकर्ताओँ को।अच्छा जरा सुडान और युगाँडा का भी पता कर बताना जी.ये पापा हैँ कि मम्मी:-)या मौसी कि फूआ।जय हो।

Monday, March 14, 2016

नमस्ते टाटा सदा वत्सले

संघ ने नब्बे साल बाद धोती पहनने की उम्र मेँ आखिरकर हाफ पैँट खोल"फूलपैँट" सिलाया।वक्त से थोड़ा पीछे चलना उनका अपना मैटर है,उनका अपना दर्शन है वो जाने।मेरा तो बस इतना मतलब था कि ये परिवर्तन काश 15-17 साल पहले हो गया होता।उन दिनोँ न जाने कितनी जाड़े की सुबह मैँने ठिठुरते पुरा गोड़ उघारे काँप काँप कर शाखा लगवाया।तीन तीन यूकेलिप्टस के पेड़ ताप गये जला के हम अपने संघी कैरियर मेँ।तब आसपास बस्तियाँ ना जला करती थीँ जहाँ आप अपने हाथ सेँक पायेँ।जब कभी शिविर लगता और हम संध्या फेरी के लिए बाजार हो के गाँव निकलते तो ये बिना नाप का हाफ पैँट पहिने और शर्ट अंडरशर्टिँग किये बड़े लजाते थे,करिया टोपिया से मूँह ढक लेते थे और लाठी जमीन पर घसीटते आगे बढ़े जाते थे।पैँट मेँ लगा बटन इतना विशाल था कि बैलगाड़ी मेँ पहिया बना के लगा सकते था कोई।अच्छा गर्मी मेँ शिविर मेँ हाफ पैँट पहिन सोना सजा ही था,जब धर्मशाला की नालियोँ से आये मच्छर रात भर घुटना से लेकर तलवा तक भभोँर मारते।सुबह प्रचारक बलराम जी जगाते वक्त भी लठिया वहीँ कोँचते जहाँ हाफ पैँट का एरिया खतम होता है,यानि एकदम घुटने से ठीक एक बित्ता ऊपर।संघ मेँ हमेँ बताया गया था कि पूर्ण प्रचारक आजीवन अविवाहित रहते हैँ।हम बाद मेँ समझे कि जीवन भर हाफ पैँट और उसमेँ भी एक ही रंग का हाफ पैँट पहनने वाले लड़के अथवा आदमी को भला कौन अपनी बेटी देता।सोचिए न मड़वा पर बनारसी साड़ी मेँ गहनोँ से लदी दुल्हन के साथ हाथ मेँ लाठी लिये हाफ पैँट पहने दुल्हा सात फेरे लेते कैसा लगता।खैर चलिए बदलाव जब आया तब ही सही,स्वागत है।बस यही सोच रहा था कि मेरे टाईम भी अगर फूलपैँट होता तो शायद मैँ कुछ दिन और टिकता संघ मेँ।अब वापस जाने का कोई मतलब नहीँ..क्योँकि हम अब जिँस पहनने लगे हैँ।फूलपैँट से आगे निकल गया हूँ...नमस्ते टाटा सदा वत्सले।जय हो।