Saturday, October 25, 2014

छठ- घर नहीं गाँव का परब

जी हाँ कुछ दिन दुनियादारी की सारी दवा और बीमारी छोड़ अपने गाँव आ गया हुँ।आस्था और पवित्रता का महा-लोकपर्व "छठ " आरंभ होने को है।एकदम से लगता है जैसे आदमी से लेकर प्रकृति तक सब "छठ" के रंग मेँ रंगे होँ।कितने कमाल की बात है साहब के दुनिया बदली,लोग बदले,रहन सहन बदला,पर्व त्योहार मनाने का तरीका भी बदला, दशहरा बदला और दिवाली बदली पर "छठ" का रंग कमोबेश वैसा ही रहा है अब तक,फिर भी तब और आज मेँ बहुत कुछ बदला है।आपको बताउँ छठ का माहौल, आदमी तो आदमी, प्रकृति भी मानो जैसे नहा धोकर तैयार हो छठ मनाने को।चार दिन के इस पर्व का हर बिता साल मुझे याद है।कदुआ भात के दिन ही घर धोआ पोछा और गोबर से लिपा के मंदिर मेँ तब्दील हो जाता था।अब हम बच्चोँ के लिए घर दुसरे देश की सीमा हो जाती थी।इधर मत आओ,तो उधर मत खाओ, तो उधर मत खेलो,हाय जाएँ तो जाएँ किधर।पर मालुम यही वो तीन दिन होता था जब हम निश्चिँत होके वैध रूप से दिन भर घर से बाहर खेलते रहते थे।अच्छा इस दिन खास करके कद्दु की सब्जी बनती है सो कद्दु तो मानो उस दिन एक दिन के लिए सब्जियोँ के राजा के राजसिँहासन पर काबिज होता है,पनीर तक पर उस दिन कद्दु भारी पड़ता है। मुझे याद है कि नानी तीन दिन पहले ही पड़ोस की "मलतिया माय" को कद्दु बुकिँग के लिए कह देती थी।देखिये न अबकी ना मेरी बुढ़िया नानी रही ना मलतिया माय,अब बस बाजार रह गया तभी तो एक कद्दु 130 रू का खरीदा अबकी।दुसरे दिन सुबह ही हम कुदाल पटरी लेके नदी पर घाट दखल करने चले जाते थे।इस टीम मेँ कई घाट मेकर स्पेशलिस्ट होते थे।पटरी से हम घाट पर ऐसी महीन कारीगिरी करते मानो ताजमहल को फिनिशिँग टच देँ रहेँ होँ। इधर 8 बजते पुरा हटिया बाजार डाला सुप और नारियल,गन्ना,कच्ची हल्दी और सेव-नारंगी केला से पट जाता।तब तक "बुधनी माय" खबर ले आती थी की "धुजी महाराज" के मिल धोयाय गैलो छोँ। फिर वही गेहुँ पिसा के लाती।फल खरीदा के और गेहुँ पीसा के आते ही खरना की तैयारी शुरू हो जाती।रात को प्रसाद के रूप मेँ ढ़ेँकी मेँ कुटे चावल और गुड़ की दुध की बनी खीर बनती।रात को जमीन पर पुआल बिछता और उसी पर सभी परबतिन का सोना होता। फिर सुबह होते मुहल्ले की "तेतरी माय", "बुधनी माय", और "टिकला माय" सहित नानी सब मिल प्रसाद बनाने मेँ लग जातीँ।कोई ठेकुआ बनाता तो कोई कचवनिया,।ठेकुआ मेँ भी गुड़ वाले के स्वाद का क्या कहना, मेरा सबसे पंसदीदा प्रसाद यही है और साथ ही कचवनीया भी।सब प्रसाद बनाते और एक साथ समवेत् स्वर मेँ छठी माई के गीत भी बिना रूके गाये जाते"काँचही रे बाँस के बहँगिया और उगहुँ सुरूज देब भईल भिनसरवा" जैसे गीत मानो आत्मा तक को माँज रहेँ हो।गीतोँ मेँ भी आह शारदा सिन्हा के गीत तो मानो गीत नही,छठ के सिद्ध मंत्र होँ,कानो मेँ घुलते ही मानो मोक्ष मिल गया हो।इधर हर घर के मर्द या बच्चे अपने अपने घर से निकल झाड़ु लगाते दिख जाते जिस रास्ते लोगोँ को छठ घाट जाना होता।पुरा का पुरा समाज इसमेँ रमा होता था। यहाँ तक कि मुस्लिम भाई लोग भी अपने घर के सामने रास्ते पर एहतियातन सफाई बरतते की किसी छठ व्रती को दिक्कत ना हो।फिर शाम को डाला सुप के लिये घाट जाना और सुबह की आतिशबाजी देखने के लिए पुरी रात बैचेनी मेँ जग के गुजारना और सुबह सबसे पहले घाट पहुँच जाना अब भी रोमांचित करता है।जी इधर कुछ सालोँ से हमारे क्लब द्वारा अर्घ्य हेतु दुध का वितरण किया जाता है सो इसके इंतजाम के बहाने आज भी हम उसी रोमांच को पुनः महसुस कर ही लेते हैँ। जी युँ तो सब कुछ बदला है पर सौभाग्यवश छठ का माहौल बदला हुआ होकर भी बहुत पुरानी चीजेँ अपने साथ रखे है। आध्यात्मिक चमत्कार की बात ना करेँ तो भी अपने सामाजिक सरोकार, परस्पर सहयोग और समन्वय तथा प्रकृति और मानव के सहसंबंधोँ को दर्शाने वाले इस महान लोकपर्व का स्वरूप अपने आप मेँ अनुठा है। आप दिवाली हो या होली तो अपने मे सिमट अपने तरीके से मना सकते हैँ पर छठ तो भइया एक परंपरा और नियम से बँध पुरे समाज के साथ ही मना सकते हैँ जिसमेँ टिकला माय भी होँगी और बुधनी माय भी। इस सामासिक व्यापक समन्वयकारी पर्व मेँ एकाकीपन की कोई जगह नहीँ।इस महान लोकपर्व का सरोकार इतना व्यापक है के पुरे समाज को एक माला मेँ गुँथे बिना इस पर्व का चक्र पुरा ही नहीँ हो सकता।ये बस अपनोँ मेँ खुशियाँ बाँटने का पर्व नहीँ है बल्कि ये तो पुरे समाज के एकसाथ उत्सव मनाने का पर्व है।यह प्रकृति को पुजने का पर्व है और डाला सुप के बहाने मानव को मानव से जोड़ने का पर्व है साहब।यही एक ऐसा अदभुत् पर्व है जिसे डिप्टी कलेक्टर साहब की माता और बुधनी की माता दोनोँ एक साथ मनाती हैँ।एक ऐसा महान उदार पर्व जहाँ उगते सूर्य के साथ डुबते को भी अर्घ्य दिया जाता है,नमन किया जाता है,शीश नवाया जाता है।हम भाग्यशाली हैँ कि हमेँ परंपरा मेँ एक ऐसा महान अनुठा लोकपर्व मिला है जो इस बदलते हुए दौर मेँ भी अपने महान सामाजिक सोदेश्यता के साथ स्थापित है और ये सदा रहेगा।पुरबिया आदमी चाहे कितना भी पछिया की लपेट मेँ आ जाये पर छठ मेँ 4 दिन पुरब की ओर जरूर लौट आता है।बंबई,दिल्ली या कलकत्ता हर तरफ से भेड़ बकरीयोँ की तरह रेल भर भर कर लाये लोग पटना,बक्सर,आरा या सीवान,छपरा के स्टेशन मेँ उतारे पटके जा रहे हैँ।ऐसी अमानवीय दशा मेँ यात्रा के आदमी दम घुँट मर जाये, पर वो तो परंपरा और माटी की जड़ की ताकत है कि रेल चाहे जैसा भी हो आदमी रगड़ा,लटका खिँचा आ ही जाता है घर तक।चलिये छोड़िये,आप मेँ से जो छठ की परंपरा से नही हैँ, यु ट्यब सर्च कर एक बार छठ के गीत जरूर सुन लिजिएगा आप भी,उसमेँ भी शारदा सिन्हा जी के गीत,सुखे मेँ रस भर जायेगा,चित्त इतना शाँत जैसे वर्षोँ के ध्यान के बाद कोई तपस्वी उठा हो। आप सभी को छठ पूजा की शुभकामना..जय हो

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