Monday, October 27, 2014

एक रात रूहानी

गाँव मेँ हुँ।रात के 11.30 बज रहे हैँ।खटिया पर कंबल ताने सोया हुआ हुँ।एक लालटेन अँधेरे मेँ उम्मीद की तरह खटिया के ठीक पास मेँ धीमे कर जला रखा हुआ है।आसपास बिलकुल सन्नाटा है,झीँगुरोँ की आपस मेँ खुसुर फुसुर के अलावा एकदम सन्नाटा है। घर के ठीक पीछे सियार की हुँआ हुँआ की धीमी आवाज आ रही है।कही लगभग किलोमीटर की दूरी से हरि कीर्तन की मध्यम आवाज आ रही है।अभी अभी तुरंत एक आवाज आयी है सामने के नीम के पेड़ से,पता नही कौन सा पक्षी है।ऊपर खपरैल पर वर्षा के पानी की कुछ बुँद गिरी हैँ,मानो घुँघरू बजे होँ।बीच बीच मेँ गली के वफादारोँ के भुँकने की आवाजेँ आ रही हैं,शायद सुरक्षा पर विमर्श चल रहा होगा।साँय साँय पछिया बह रही है। घर के दरवाजे पर रजनीगँधा और रातरानी गम गम कर रही है। सच कहता हुँ, अगर आप शहर मेँ सोये हैँ तो मेरा दावा है, ऐसी रूमानी रात ला के दिखा दिजिए। माफ करियेगा आज मैँ तो "बादशाह हुँ और मैँ आपको अगर एक घुटन वाली कर्कश रात मेँ फँसा "कंगाल" कह दुँ,तो प्लीज बुरा मत मानियेगा.... 5 दिनोँ बाद मैँ भी फिर से कंगाल हो जाऊँगा।मेरी बादशाहत भी लुट जायेगी,ये रात चली जायेगी।क्योँकि वापसी का टिकट है, फिर शहर को जाना है। जय हो

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