Thursday, October 9, 2014

चुहानी टूट गईल नानी

आज जब खाना बना रहा था के अचानक कड़ाही से उठे मसालेदार खुशबु वाले भाँप से मन के भीँगते ही जाने कितने यादोँ के कोँपले फूँट पड़े। तब के खान पान पकान और आज की शैली मेँ बड़ा फर्क आ गया। तभी याद है के घर मेँ अलग से एक रसोईघर होता था जिसे हमारे यहाँ"चुहानी"कहते थे। यह समान्यतः आवासीय कमरे से थोड़ा हट के होता था,कारण ये था के तब घर मेँ दो ही स्थान पवित्र माना जाता था एक तो पूजा घर दुसरा रसोई घर।क्या मजाल के कोई जूता चप्पल पहने 'चुहानी' मेँ घुस जाये।रसोई मेँ 'देवी अन्नपुर्णा' का वास माना जाता था और जाने अनजाने इस विश्वास और पवित्रता के कारण बड़ी सफन सफाई वाला भोजन बनता था वहाँ। माटी का चुल्हा होता था और माटी के फर्श से लेकर चुल्हे तक की रोज गोबर से लिपाई होती थी और उसके बाद बुढ़ी माई टीका लगाती तब चुल्हे पर कड़ाही चढ़ती थी।अच्छा तभी जब सब्जी के लिए"लोढ़ी पाटी" पर मसाला पीसाता तो गरड़ गरड़ की आवाज आँगन मेँ ऐसी गुँजती मानो ठीक बरामदे के किनारे से रेल जा रही हो।सब्जी की कड़ाही को चुल्हे पर चढ़ा उपर से थाली ढक दिया जाता और थोड़ी देर बाद उससे भाँप की फुड़ फुड़ की आवाज आती और उपर का थाली नाच नाच बताता हुआ प्रतित होता था के "लो अम्मा सब्जी बन गई,उतार लो "।बिना MDH और EVEREST के टोला गमकता था, ऐसा जादू था उन कच्चे मसालोँ और माँ के पक्के हाथोँ मेँ।खाना खाने का भी एक शास्त्रीय नियम सा था। कच्चे फर्श पर पोछा लगा के वहीँ पीढ़ा या बोरा बिछा के आसन लगता।याद आता है के नाना खाना खाते और बुढ़िया नानी पंखा झलती। आज के नारीवादी इसे शोषण और गुलामी कह सकते हैँ पर ये उनके लिए स्नेह और समर्पण था जो आखिरी दम तक रहा।वे बिना शिकायत खुशी खुशी अपनी जिँदगी जी के, दुनिया को बहस करता छोड़ गये।आज सब कुछ बदल गया साहब।पता नहीँ किसने अफवाह फैला दी।औरतोँ के लिए खाना बनाने को चुल्हा झोँकने का नाम दे दिया गया और रसोईघर को कालापानी घोषित कर दिया गया।रसोई से मुक्ति को भी नारी मुक्ति का नारा मान लिया गया। नारा बुलंद हुआ।अपने अर्थोँ मेँ नारी जग गईँ शायद और चुल्हे पर पानी डाल दिया गया,कड़ाही उलट नारी निकल पड़ी और चुहानी ध्वस्त कर दिये गये।अब किचन आ गया। नारी ने कहा हम अब सशक्त हुए सो खाना नहीँ बनायेँगेँ,पुरूष ने कहा हम तो सदियोँ से सशक्त हैँ सो हम भी नहीँ बनायेँगेँ।नतीजा खाना नौकर बनाने लगा। माँ बहन या पत्नी पंसद के हिसाब से बनाती थी पर नौकर आपकी औकात के हिसाब से बनाता है।तब थाल मेँ प्यार परोसा जाता था अब बस गीला-सुखा खाना परोसा जाता है।अब चम्मच से खाते हैँ तब मन से खाते थे।अब आदमी के पास न बनाने का वक्त है न खाने का। तभी तो अब 2 मिनटस् मेड मिल आ गया है।2 मिनट मेँ बनता है और 7 दिन मेँ पचता है।पता नहीँ आदमी शांति से बैठ खा भी नहीँ रहा बस भुखा प्यासा जमा करने मेँ लगा है।उसे कौन बताये के जमा चीज एक दिन सड़ ही जाती है चाहे कितना जमा कर लो। आदमी काश एक दिन शांति से बैठ पेट भर खाता तो उसकी भुख मिटती और तब वो संतोष पाता फिर शायद इस कदर ना जमा करने के पीछे भागता फिरता।एक दिन बैठ प्रेम से पेट भर खाये तब तो पेट और भुख का अंदाजा लगे पर उसके पास रिश्वत से लेकर देश तक खाने का वक्त है पर भोजन के लिए समय नहीँ है। शायद यही कारण है कि भुखा आदमी आज भी दौड़ रहा है जमा करने को..खुब जमा करने को..अपनी भुख से कई गुणा ज्यादा।:-)क्योकि उसे अपने पेट का अंदाजा ही तो नही है साहब।सो जाईए एक दिन शांति से बैठ के जरूर खाइए।यकिन मानिए मजा आ जायेगा और बहुत कुछ बदला बदला लगेगा हुजुर।जय हो..

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