Monday, November 10, 2014

लिट्टीलाइजेसन

"लिट्टी-चोखा'' आहा नाम सुनते ही आपके मुँह मेँ पानी आ जाय पर मेरी तो आँखोँ मेँ पानी भर आता है।मुँह तो मैँ आज भी इसके लिए बाये रहता हुँ।एक अनोखी भावुकता है लिट्टी के साथ। लिट्टी युपी बिहार का स्वादिष्ट ही नही अपितु आम साधारण लोगो का शाही फूड था ये।इसकी लोकप्रियता का कारण केवल इसका स्वाद नही था बल्कि इसके बनने मेँ इसकी कम लागत, कम समय, बिना किसी बर्तन और तामझाम के बनने और गरीब, किसानो, कामगारोँ के पेट की आग को दिन दिन भर बुझाये रखने की अद्भुत योग्यता से था जिसने इसे "जनभोजन" का दर्जा दिला दिया था। लिट्टी केवल एक type of desi food नही था बल्कि यह एक पुरा मैकेनिज्म है जो किसानोँ कामगारो और साधारण आम लोगोँ के भुख तंत्र से जुङा है।एक तो इसके बनने मेँ बस आटा और सत्तु चाहिए।बस सत्तु को भी कुछ नहीँ करना,उसमेँ तनी नमक डाला,कच्चा सरसोँ तेल,हरिहर मिर्चा का टुकड़ा,कच्चा लहसुन,नीँबु निचोड़ा, अजवायन और तनी अँचार का मसाला,सब डाल एकदम रगड़ के मिला दिये।एकदम लहरदार चटक सत्तु मसाला तैयार।अब आटा साना सत्तु डाला और बङका गोला बनाया और कहीँ भी गोयठा कंडा की भौरी जलाई और सेँक लिया।मिल के चार लिट्टी खाई और चल दिए देश खाने वालोँ के यहाँ पानी पी पी के मजदुरी करने। जी लिट्टी विज्ञान कहता है लिट्टी खा के पानी पीते रहने से वो अंदर फुलता है और भुख नही लगती,पेट भरा महसुस होता है।इतना चमत्कारी और गरीबोँ कि सँजीवनी हुआ करता था ये लिट्टी। गाँव देहात के लोगोँ के लिए खाद्य सुरक्षा का प्रतीक था ये लिट्टी।इतना ही नहीँ,भले इसे बनाने मेँ संसाधन कम लगते होँ पर जो भी संसाधन लगते थे वो बिना सब के मिले कहाँ से जुटते।केवल भोजन नहीँ बल्कि लिट्टी तो खुद आग पर जल समाज को जोड़ने वाला फेवीकोल था। बिरजु जा के अपने गोहाल से गोयठा उठा लाया,तो लखंदर आटा सान रहा है,ताजा लहसुन मिर्चा के लिये दौड़ के हरिया अपनी बाड़ी से तोड़ आया,इधर गणेशर गोला बाँध रहा है तो उधर बजरंगी आग पर हल्का हल्का सेँक रहे हैँ।जब तक लिट्टी सेँका रहा है सब छिरिया के बैठे हैँ बोरा बिझाये,गाँव का किस्सा "अहो सुने कल गौरी मंडल के मुर्गा मार के कउन तो खा गया और बदमाशी देखिये कि खाय के पंखी द्वार पर टांग गया"।तब तक गंभीर टॉपिक पर चर्चा उठ जाती "ई साला सुने बिजली SDO फेर लौटा दिया,कहा ट्राँसफरमर हईए नही है अभी,बताईये तीन महीना से अँधार मेँ हैँ,साला 5000 तो खिला चुके चंदा उठाय के बिजली ऑफिस को,बहुत आफत है गुरू"।ऐसी और ना जाने कितनी बातेँ। जी हाँ ऐसा होता था लिट्टी,ये अंदर पेट को गर्मी देता था बाहर रिश्तोँ को,चर्चाओँ को गर्मी देता है। ये हमारा इतना अपना था कि आज मन भावुक हो उठता है इसे खुद से दुर और पराया होता देख। आज शहर मेँ जब इसे लिट्टी से लिट्टीज बनते देखा तो आँख भर आई।85 रुपये मेँ 2 पीस मिलने लगा है ये। कहाँ तो हमरे गाँव का लिट्टिया एकदम बदल गया है यहाँ आ के। हमे देख मुँह फेर लेता है। मैँने उससे कहा भी कि शहर आ के तेरी कीमत बढी है पर कद छोटा भी हुआ है। हमारे यहाँ तु लिट्टी का गोला था यहाँ छोटी सी लिट्टीज की गोली हो गया है।पर वो खुश है यहाँ। कहा "अमीरोँ की सँगत मेँ अब मेरा लिट्टीलाईजेशन हो गया है,इसमेँ कद और गुणवत्ता घटती है पर कीमत बढ़ जाती है"। कहा अब यहाँ भी लोग खाते कम और बचाने ज्यादा लगे हैँ तभी तो यहाँ भी हिट हुँ।मगर लिट्टी नही जानता यहाँ लोग उसे चम्मच से खाते हैँ हम उसे मन से खाते थे।जब एक साहब को मैँने लिट्टी की पेट काँटा चम्मच भोँकते देखा तो लगा जैसे बचपन के साथी को खुखरी गँथा दी किसी ने,दिल दहल गया। कुछ भी हो पर हाँ चलिये आज जब लिट्टी को मालपुआ और पनीर टिक्का और दाल बाटी चुरमा के साथ कतार मे सजा हुआ देखता हुँ तो सँतोष मिलता है कि अपना लिट्टी बङी औकात वाला हो गया। वो आज भी मेरा उतना ही लगता है जितना पहले।:-) जय हो।

1 comment:

  1. बेहतरीन ब्लॉग। लिट्टी जैसे स्वादिस्ष्ट और हानि रहित व्यंजन के शहरीकरण की शानदार व्याख्या।

    ReplyDelete