Saturday, February 27, 2016

"महिषासुर शहादत दिवस"

महिषासुर की मौत को स्वीकार कर "महिषासुर शहादत दिवस" मनाने से एक अर्थ तो साफ है कि देवी दुर्गा के अस्तित्व को तो सब स्वीकार करते हैँ और ये भी कि जेँटल महिषा कुमार जी का मर्डर हुआ है।ऐसी हालत मेँ महिषा खेमे के लोगोँ को राजनीति और आंदोलन से ज्यादा स्वास्थ्य पर ध्यान देने की जरूरत है क्योँकि जो दुर्गा महिषा जैसे परम जेँटलमैन और शक्तिशाली योद्धा का वध कर सकती है वो आज के पेँसिल जैसी काया लिए सिगरेट फूँक फूँक नारा लगा के हाँफते और थक के बर्गर खाते क्रांतिकारियोँ का कितना लोड लेगी और कब त्रिशुल घोँप देगी कोई भरोसा नहीँ।सो आईए "राईट टू एक्सप्रेशन" की जगह"राईट टू हेल्थ" पर काम करेँ।और हाँ ये पल्सर बेच के भैँसा चढ़िये..दुर्गा समर्थकोँ के बीच आपका भोकाल टाईट होगा और माहौल तो बनेगा थोड़ा क्योँकि ये दुर्गा की तरह शेर थोड़े चढ़ते हैँ:-)।जय हो।

Friday, February 26, 2016

लोकतंत्र के मंदिर मेँ - A Journey Parliyament of india

पता नही क्या झक चढ़ा कि, कल पुरी रात यू-ट्यूब पे लोकसभा की कार्यवाही के कई कई सालोँ-दशकोँ पीछे के कई पुराने पुराने वीडियो खंगाल खंगाल देखने लगा।उन दशकोँ दशक पुराने कार्यवाहियोँ को देखने सुनते वक्त कई बार मन शांत हो जाता,कई बार झुम जाता।एक वीडियो मेँ देखा,अटल जी भाषण दे रहे हैँ..सामने दुसरे दल के कुछ सदस्य हल्की टोका टोकी कर रहे हैँ..इसी बीच विरोधी दल के चंद्रशेखर उठते हैँ और कहते हैँ"मैँ सदन से निवेदन करता हूँ कि माननीय अटल जी के बोलने के बीच इस तरह की टोकाटोकी ना करेँ,उनके भाषण का सदन लाभ ले।वे हल्ला और टोका टोकी के कारण पिछले 40 मिनट मेँ 20-25 मिनट ही बोल पाये हैँ।सदन से अनुरोध है कि अटल जी को धैर्यपूर्वक सुन लिया जाय"।ये बोल चंद्रशेखर बैठे और सदन किसी बौद्ध मठ के प्रार्थना घर की शांति मेँ तब्दील हो गया। यकिन मानिए ये पुरा दृश्य देख मेरे रोएँ खड़े हो गये,मुट्ठी बँध गई,आत्मा गुदगुदा गई,होँठोँ पर हल्की मुस्कुराहट तैरी और आँखोँ मेँ पता नहीँ खुद ब खुद पानी की बुँदेँ उतर आईँ।अब ना अटल जी की साफगोई और निडरता से कोई बोलने वाले रहे ना चंद्रशेखर की धीरता से सुनने वाले।नेहरू-लोहिया के पक्ष विपक्ष की जोड़ी तो देश के लोकतांत्रिक इतिहास मेँ तमाम अंतर्विरोधोँ के बाद भी लोकतंत्र के मंदिर मेँ बहस के संतुलन का सबसे चमकीला उदाहरण है ही..उस दौर पर क्या लिखना।अब लोहिया जैसे विचारोँ की आग है ना नेहरू जैसे धीर का दमकल साब,अब तो घर जलाने और दीये बुझाने वाले मिलते हैँ।ऐसे कई पुराने वीडियो देखना रात भर वैसा सुकून दे रहा था जैसे मैँ हनी सिँह,हिमेश रेशमिया और राधेश्याम रसिया के दौर मेँ चुपचाप आँखेँ बंद कर मुहम्मद रफी और किशोर के सदाबहार नगमेँ सुन रहा होऊँ।ये कौन सा दौर आ गया..संसद की कार्यवाही देखिये..कहीँ फुल भाव भंगिमा के साथ गर्जन सहित तीजन बाई का पांडवी गान तो दलेर मेँहदी टाईप बल्ले बल्ले का नगाड़ा छाप हल्ला।मेरे उमर के नौजवानोँ..एक बार पीछे का गीत सुन के देखिये,राजनीति की सुचिता,तथ्योँ की धार,बोलने की तासिर क्या होती है वहाँ पता चलता है।मैँ भाग्यशाली हूँ कि सूदुर गाँव मेँ पैदा हुआ,दिल्ली और संसद आँख से देख पाऊँगा इतना तक भी सोचा न था पर बचपन से अपने आस पास कुछ ऐसा माहौल रहा.. सुनता आया..लोहिया ऐसे बोलते थे..नेहरू ऐसे सुनते थे,जार्ज ऐसे बोलते थे,मधु लिमये का ये अंदाज था,अटल जी ऐसे बोलते हैँ,इनको और जार्ज जी को रेडियो छाती पर रख सुनता था।अब छाती खोल बोलते सांसद,छाती पीट चिल्लाते सांसद..आँखोँ से उतर जाते हैँ..छाती पर क्या रखे जायेँगे,सीने से क्या लगाये जायेँगे।जय हो।

Thursday, February 25, 2016

ट्रेन ट्रेन ट्रेन

"कोलकाता-दिल्ली राजधानी" के डब्बे मेँ हूँ।सामने 3 बंगाली,बगल मेँ 2 दक्षिण भारतीय,1 बिहारी और 1 राजस्थानी बैठे हैँ।मतलब आज सच्चे भारतीय रेल मेँ हूँ।और सबसे रोचक बात कि,मेरे ठीक सामने एक अमेरिकन भी बैठा है।सामने जो बंगाली बैठे हैँ उनमेँ एक की उम्र लगभग 45,दुसरा 50 और तीसरा 40 का है।इसमेँ दो कुँवारे हैँ और एक शादीशुदा और तीनोँ घुमने निकले हैँ।जान लिजिए कि भारत मेँ अगर बंगाली ना होते तो ये घुमने घामने और टूर ट्रेवल्स टाईप शब्द विलुप्त हो गये होते।एक यूपीआई-बिहारी वाला जब भी यात्रा मेँ होता है तो वो घुमने नहीँ,शादी विवाह,तिलक,गौना,मुंडन,श्राद्ध,बीमारी,ईलाज,गृह प्रवेश,पूजा पाठ इत्यादी के कारण परिवार सहित यात्रा मेँ होता है पर बिना किसी कारण मूड बना टीम बना के बस घुमने निकलने का जज्बा बंगाली ही एफोर्ट करता है।सामने टेरीकॉटन-पॉलिस्टर मिक्स बड़े बड़े छापा वाला सलेटी,आसमानी और सफेद एवं अपने साईज से सवा नंबर ज्यादा का शर्ट अंडर शर्टिँग कर बड़ा बकलस वाला बेल्ट बाँधे बैठे सपन दा,दुलाल दा और गपोन दा मेँ से गपोन दा सुबह वाला बांग्ला अखबार पढ़ रहे थे और सपन दा ने मोबाईल मेँ एक बांग्ला गीत चलाया है और दुलाल दा सर और हाथ हिला उससे सूर मिला रहे हैँ।सपन बोले हैँ"ऐ खाने आईडिया टाबर नाय।ऐ टो भालो होईलो,कूनो फोन फान आसबेक ना"।दुलाल दा ने संगीतमय सर हिलाते बोला है"आमी फोन टा आफ कोरे राखे छी।आमा के घुमे फीरे बीच कूनो डिसटरबेँस टा बोरदाश नाय"।एक बिहारी जब ट्रेन मेँ रहता है तो भले वो हनिमून जा रहा हो पर फोन पर निर्देश और सुझाव देता लगा रहेगा"हैल्लो,हाँ संटु को पेमेँट दे के भिजवा देना।पीछे वाला दिवार प्लास्टर का काम लगवा देना।अच्छा हाँ बैँक का कागज मँगवा लेना।अरे ऊ बाबूजी के दवाई ले फेर डॉक्टर के देखा देना।गड़िया सरभिसिँग मेँ भेजवा देना"।मतलब वो पत्नी को अपना सिँसियर परफार्मेँस तब तक दिखाता रहेगा जब तक पत्नी मोबाईल छिन ये ना कह देगा"ऐ जी अब का समूचा देश आपही चलाईएगा।घर मेँ आरू त अदमी है।आप दू चार दिन भी त रेस्ट मार लिजिए।फेर सब त आपही के देखना ही है"।पर एक बंगाली इन सब ताम झाम को घर के पोखरे बहा आता है।वो जानता है पृथ्वी घुम रही है,वो संग सँग घुम जाना चाहता है।इधर बैठा राजस्थानी खा पी लगातार लेन देन लाओ पहुँचाओ की बात कर थक सो गया है।आईए अब अमेरिकन पर।ये गेरूआ टीशर्ट,जिँस पहने है।हाथ मेँ तुलसी की माला और लगातार हरे कृष्ण,हरे हरे जप रहा है।सब बड़े अचरज मेँ उसे देख रहे हैँ सबसे ज्यादा खैनी रटाते हुए बिहारी बरमेश्वर सिँह जी।अचानक अंग्रेजी मेँ उस अमेरिकन ने मुझे पूछा"ये भारत मेँ खैनी क्यूँ खाते हैँ?और ये सब लोग इसे रगड़ते क्युँ हैँ?"मैँ अंग्रेजोत्रस्त हिँदीभाषी आदमी उसका प्रश्न सुन अकबका गया फिर जैसे तैसे समझाया कि "जैसे आप स्मैक,कोकिन,हेरोईन लेते हैँ उसी तरह हम मिजाज टाईट करने को खैनी लेते हैँ"।पर उसने फिर पूछा"बट व्हाई रबिश टॉबैको"।मैँने बोला"टेस्टी और ईफेक्टिव बनाने के लिए"।इतने मेँ तब से हमदोनोँ की अंग्रेजी ताक रहे बरमेश्वर बाबू बोले"महराज ई अंगरेज तबे से हुआई हुआई का पूछ रहा है,आप का बताये इसको"।मैँने बताया कि ई खैनी रगड़ने का कारण पूछा और हम असरदार और टेस्टी होना बताये।बरमेश्वर बाबू उचक के बोले हैँ"मर्दे ई बकलोल के बताईए कि ये पुष्टिवर्धक,बलबर्धक,बुद्धिबर्धक, आईटम है और रगड़ने से आयु बढ़ता है।खिला दीजिए न साले को एक चुटकी।सब बुझा जायेगा हुआई हुआई रबिश।इसको भोजपूरी सिखाईए तनी" ये बोल बरमेश्वर बाबू ठहाका लगाये!इतने मेँ वो भी हँसा और बोला"या या आई नो जगन्नाथपुरी"।बरमेश्वर बाबू एकदम उसके मुँह पर सट बोले"अरे भाई साब भोजपूरी,भोजपूरी।जगननाथपुरी नो।भोजपुरी।"।फिर मैँने उसे बताया कि ये बिहार की भाषा है इस पर वो बोला"या या आई नो,नाईस लैँग्वेज।या बिहार।निटिश कुमाअर"।मैँ मुस्कुराया और विडंबना सहित सोचा कि एक बिदेशी भारत को बंगाल और बिहार के नाम से जानता है,केवल भारत नाम से नहीँ।फिर ये सोच थोड़ा गुदगुदाया भी कि अब बिहार लालू नहीँ नितीश कुमार हो रहा है।अब वो अमेरिकन हमसे घुलशर्बत हो चुका है।उसने अंग्रेजी मेँ प्रवचन शुरू किया है"गीता मेँ लिखा है कि औरत सब समस्या की जड़ है।पुरूष थोड़े से सुख के लिए खुद से नियंत्रण छोड़ देता है।गृहस्थ को मोक्ष पाना है तो सब छोड़ कृष्ण की शरण आये।मैँ शांति से बैकुंठधाम जा पाऊँगा क्योँकि मैँ नारी और ऐश्वर्य से दूर हूँ"।फिर वो संस्कूत के श्लोक भी पढ़ने लगा।मैँ दंग।सब दंग।मैँने सोचा गीता मेँ कब महिला को समस्या माना यार।खैर जो हो ये अमेरिकन पूरी तरह भारतीय बाबागिरी मेँ ढल चुका था। पश्चिम की प्रगतिशिलता को पूरवाई वेद पुराण का लकवा मार गया था और मैँ एक सच्चे भारतीय की भाँति संतोष मेँ डुबा था कि चलो साला एक अमेरिकन तो चपेट मेँ आया न।फिर वो बोला"मैँ 19 की उम्र से इस्कॉन मेँ हूँ और भारत घुमता हूँ।आपलोग भाग्यशाली हैँ कि पुण्यभुमि मेँ जन्मे।हम पापी हैँ कि अमेरिका मेँ जन्मे!भारत जगतगुरू बनने वाला है।कृष्ण सबके मालिक।हमसब को भवसागर पार करना है"।इन सारी बातोँ को जब मैँने हिँदी मेँ बरमेश्वर बाबू को बताया है,वो उछल पड़े हैँ और उस अमेरिकन के हाथ धर अंग्रेजी भाव लिये हिँदी मेँ बोले हैँ"अरे बाबा अंगरेज।केतना बिदवान हैँ मर्दे आप।आई एम योर भक्त अब से।यू डीप अध्यन एण्ड जानकारी।यू एकदम भेरी भेरी ज्ञान एंड नॉलेज धर्म एण्ड कृष्ण भक्ती ओर भगवत् गीता।बाप रे क्या आदमी हैँ आप।ऐसे थोड़े दू सौ बरस राज किया अंगरेज।यू आर किँग।"।बरमेश्वर बाबू बौरा चुके हैँ उसकी विद्वता और भारत के प्रति भक्तिपूर्ण समर्पण से।उनकी आँख मेँ आँसू आ गया है भारत को जगतगुरू बनता देख।तब तक मैँने पूछा"आपको फंड इस्कॉन देता है घुमने फिरने का"।वो बोला"कृष्ण देता है"।मैँ मान गया हूँ,ये संपूर्ण बबवा बन चुका है।विचार और शातिरपने सबसे।फिर वो बोला"मुझे माँ बाप पागल समझता है पर मैँ कृष्णभक्त हूँ"।सोच रहा हूँ:-)भारत हो या अमेरिका,माँ बाप एक से सही होते हैँ।जय हो।

Wednesday, February 10, 2016

आदमी देवता हो जाना चाह रहा है।

आदमी देवता हो जाना चाह रहा है।वो चाहता है कि वो बोले और लोग उसे ईश्वर की तरह सुनेँ।वो शायरी,कविता,कहानी,उपन्यास,संस्मरण और न जाने कहाँ कहाँ से दया,करूणा,निष्पक्षता,समानता,सब बटोर फेसबुक पर अपना मंदिर खोले बैठा है और वो चाहता है कि उसके मंदिर के आगे लंबी कतार लगी रहे,लोग लाईक चढ़ायेँ..धन्यवाद का प्रसाद ग्रहण करेँ और पुनः आयेँ।मगर इन सब के बीच जरा सोचिए कि चलिए मैँने किसी को अपना "भगवान" मान लिया।आप जानते हैँ भगवान होने का मतलब?मैँ चाहुँगा सुबह चार बजे उठ अपने भगवान को ठंडे पानी से नहवाना।उनकी काँख मेँ जमेँ काई को किसी लाल कपड़े से रगड़ रगड़ छुड़ाना।गीले वस्त्र पहनाना और फिर शुरू करूँगा उनका पूजन।सबसे पहले भगवान के सर नारियल फोड़ना चाहता हुँ।फिर डालुँगा उसके सर पर तीन दिन का रखा कच्चा लठलठ करता दुध। मैँ चाहता हुँ उसके कपार पर पहले चंदन रगड़ देना और फिर पुरे मुँह पर लाल अबीर का लेप।फिर घसुँगा लाल रोली और उस पर दही शहद का घोल।मैँ खोँसना चाहता हूँ उसके दोनोँ कानोँ पर कनेल के पीले फूल और चढ़ाना है मुझे उसके सर पर धतुरा का सफेद फूल।दो गेँदा फूल उसकी टाँग के बीच रखना है और एक बेलपत्र साटना है उसके पेट पर।फिर खिलाना है बिना उसकी पसंद पूछे अपनी औकात के हिसाब से खरीदी गई लालमोहन साव की दुकान वाली ठोस लड्डु।एक टुकड़ा तोड़ ठुँसना है उसकी अधखुली मुँह मेँ और चुलू भर पानी करना है अर्पण उसकी प्यास बुझाने को।फिर चढ़ाऊँगा उसके कंधे पर दो गलगलाये केले और पिचके संतरे की दो फाँक।फिर निकालुँगा अपने झोले से भर मुट्ठा अगरबत्ती और जला के खोँस दुँगा ठीक उसकी कमर के पास जिससे निकलने वाला गमकदार धुँआ लगातार उसकी आँखोँ और नाक मुँह मेँ घुसता जायेगा और वो कुछ ना बोलेगा।इसके बाद श्रद्धा से बिना निशाने फेकुँगा उसके देह पर कुछ खनखन करते सिक्के जो उसके सर लगे या आँख पर इसकी कोई गारंटी नहीँ।मेरे और जाने के बाद भी खुली रहेगी उसकी चौखट जहाँ घुस आयेगी कोई बकरी और खायेगी उसके काँख से नोच कर फूल और पेट पर से खीँच कर बेलपत्र।एक कुत्ता घुस आयेगा जो चाटेगा उसके पैर जहाँ कुछ देर पहले गिराये थे मैँने लड्डु और दही शहद की कुछ बुँदे।उसके बदन पर चढ़ी रहेँगी काली चीटियाँ और जायेगी मुँह तक जहाँ मेरे द्वारा ठुँसे लड्डु के कुछ कण फँसे हुए थे।मेरा भगवान तब भी कुछ ना बोलेगा।वो हाथ उठाये मुस्कुराते फिर भी कृपा की मुद्रा मेँ ही होगा।वो सबको कृपा देता है।उसकी करूणा और समानता का आलम ये है कि वो आदमी,बकरी और कुत्ते का फर्क नहीँ करता।वो मंदिर नहीँ बदलता,वो घिस जाता है पर तटस्थ रहता है।वो देवता इसलिए नहीँ कि हमने आपने उसे देवता मान लिया है।बल्कि वो देवता इसलिए है कि उसने अपने पूजे जाने की कीमत भी अदा की है।सह पाओगे इतना कुछ?दिखा पाओगे ये करूणा?तो आओ मेरा देवता बन जाओ। मैँ खोज रहाँ हुँ वो आदमी,जिसे मैँ अपना देवता बना पाऊँ।है कोई?जय हो।

ऊ जब भी टिकट कटाता है त राजधानिये का

असम जाने वाली"डिब्रुगढ़ राजधानी" मेँ हूँ।पर दो बजे दिल्ली से खुली इस ट्रेन के जिस बोगी मेँ हूँ वो पूरा यूपी बिहार है।पूरी बोगी बड़े बड़े लाल और पीले रंग की VIP अटैँची से भरी हुई है।सीट के नीचे सामान ठूसा पड़ा है।अक्सर बिहार यूपी के इन परिवारोँ भरपूर सामान ले जाते देखा है पर ये भी जान लिजिए कि अगर जिँदगी से हिसाब करेँ तो ये दिल्ली नोएडा और गुड़गाँव मेँ खट खट के उनके बहाये गये खून पसीने से कम ही ठहरेगा।सामने एक 55-56 वर्ष के बुजुर्ग बैठे हैँ गणपत सिँह जो अपना ईलाज कराने गये थे दिल्ली बेटे के पास।सीट पर बैठते गणपत जी ने मफलर टाईट करके कान मेँ बाँध लिया और कंबल टाँग पर डाल पलथी मार बैठ गये हैँ।वो एक अपने साईज से सवा नंबर ज्यादा एक सिलेटी रंग का बंडी डाले हुए हैँ जो शायद बेटे ने स्नेहवश पहनाया।अक्सर गाँव से शहर गया आदमी किसी से उपहार पाते इतना संकोची होता है कि वो ट्रायल रूम जा के फीटिँग नहीँ देखता,वो तो फीलिँग देख के कपड़े ले लेता है।उनके साथ हैँ उनके केयर टेकर "अंबुज जी"।ये अंबुज जैसे लोग वो लोग हैँ जो हमेशा गाँव समाज के लोगोँ के लिए कहीँ भी आने जाने तैयार रहते हैँ।अंबुज टाईप लोग समाजिक कार्योँ के लिए किसी भी रैमन मैग्सेसे पुरस्कार पा गये सामाजिक कार्यकर्ता से ज्यादा काम अपने गाँव समाज के लिए कर चुके होते हैँ पर ये उनका दुर्भाग्य कहिये कि ऐसे लोग बेचारे पुरस्कृत होने की जगह निठल्ला बेगारी खाने घुमने वाले कहाने लगते हैँ।बगल मेँ एक लड़का बैठा है जो लैपटॉप निकाल चार्जर ठूस रम गया है।बाकि दो तीन और लोग मोबाईल पर व्यस्त हैँ और कुछ मिनट मेँ सारी बोगी चार्जर निकाल के तार मेँ उलझ गई है।क्या करे आदमी सिर्फ खर्च हो रहा है और बैटरी खतम है।आदमी मेँ मसाला कम है और चलने की तलब ज्यादा है।तभी तो जैसे तैसे चार्ज होना मजबुरी है।गाड़ी खुलते गणपत जी बड़े संतोष के भाव मेँ बोले हैँ"देखिये अंबुज जी केतना राईट टाईम खुल गया।एक्को सकेँड का लेट नहीँ"।अंबुज बोले"अरे महराज त रजधानी है।कोनो जनरल ट्रेन नही न है"।गणपत जी मुस्कुराते हुए मोबाईल पर उँगली फेरते बोले हैँ"हाँ भई अब अनुराग के बेबस्था है।ऊ जब भी टिकट कटाता है त राजधानिये का"।तब तक पैँट्री वाले खाना लेकर आ गये।गणपत जी ने देखते मना कर दिया"ऐ अंबुज जी आप ही खा लिजिए।हम त अनुराग के डेरा पर भात एतना खा लिये हैँ।आप त देखबे किये"। अंबुज ने खाना का ट्रे लपकते हुए कहा"हय अरे त कोनो पैसा लगना है का?ई त टिकटे मेँ न इनकुलूड है।दु रोटी मार लिजिए।बर्बादे न होगा फेर खनवा"।गणपत जी ने कंबल हटा"अरे उ त हमको पता है ही।लाईए खाईए लेँ।अच्छा एक बात बताईये अंबुज जी,ई अनुराग का कैसन लगा जॉब आपको?"अंबुज तब तक एक रोटी निगल बोले"अरे एक नम्बर सेट हो गया है।देखे नहीँ कितना तगड़ा त है सबकुछ।का फस्ट किलास खान पान,रहन सहन।अच्छा ई फलेटवा खरीद काहे न लेता है जिसको लिया है भाड़ा"।गणपत जी थोड़ा हँसे और थोड़ा फँसे भाव से बोले हैँ"हाँ ले लेगा।दाम भी त सोना के भाव है।अबकि रिटायमेँटवा का कुछ पैसा निकलेगा त देँगे और कहेँगे कि खरीद लो"।अंबुज ने हाँ मेँ सर हिलाया और तब तक खाना समाप्त हो चुका था।गणपत जी फिर बोले"अच्छा एक बात आप देखे।ई अनुराग के एनीटाईम इंगलीशे बोलना पड़ता है।और एक्को शब्द मेँ अटकता नय है जवान"।अंबुज ने पानी का बोतल खोल बोला"अरे एमेएनसी कंपनी मेँ है।ऊँहा हिँदी चलेगा?एक मिनट नय ठहरता है ऊ सब जगह पर बिना इंगलिश के आदमी"।गणपत जी गर्व से गर्म हो मफलर ढीला करते हुए पूछे हैँ"अच्छा हो ई एमेनसी कंपनी का होता है।मने टाटा बिड़ला से केतना आगे है"।अंबुज जी ने अपने आर्थिक जानकारी का सारा निचोड़ चेहरे पर लाते हुए कहा"अरे टाटा बिड़ला का है ई कंपनी के आगे।एमेनसी का मतलब है बिदेशी कंपनी।इसका बड़का लंबा चौड़ा नेटवरकिँग है।मने ईसमेँ दू पैसा कम भी मिले पर इसका एगो अलग भेलू है"।तब तक एक महीन शालिन रजनीगंधा की खुशबु मेँ लिपटी आवाज आई"एकच्युली MNC का मिनिँग है मल्टी नेशनल कंपनीज।इसके कई कंट्रीज मेँ ब्राँचेज होते हैँ"।सब उस लैपटॉप मेँ बँधे युवक की तरफ देखे।गणपत जी ने पहला और आखिरी सवाल पूछा उस लड़के से"त कैसा है ई कंपनी बाबू?हमारा लड़का अनुराग इसी मेँ है।"।लड़के ने चश्मा पोछा और एक सारगर्भित टिप्पणी कर पुनः लैपटॉप मेँ लग गया"देखिये अंकल अब कंपनी कंपनी के नेचर एण्ड कई डाईमेँशन पे डिपेँड है।कंपनी की मार्केट वेल्युज क्या है एण्ड मेनी प्वाईँट कंसीडर करने होते हैँ।मेय बी कि कंपनी अच्छी हो आपके लड़के की"आगे गणतप जी ने कुछ ना पूछा बस अंबुज की तरफ देखे और लेट गये।अब रात हो चुकी है और एक पटना मेँ व्यवसाय करने वाला युवा उद्यमी फोन पर किसी को दे रहा है"अबे ललन।मैँ आईये जाऊँगा भोरे तक।अभी राजधानी मेँ हूँ।और सूनो ऊ अभी पेमेँट का बात ना करो।देखो अभी हम सिँगापूर से माल मँगा रहे हैँ।पैसा वहाँ फँसा है।साला अभी सिँगापूर बाजार मेँ चल रहा है हड़ताल।टूटेगा, माल आयेगा तब देँगे तुम्हारा वाला बकाया"।तब उसकी पत्नी ने खाना खाते चिल्लाया"अरे धरिये न फोन।ई खाना है।ना तेल ना मसाला।आपको बोले कि जहाज से चलिये लेकिन आपका त रेले नय छुटता है।ई जनम कबो चढ़ेँगेँ कि नय जहाज पर पता नय"।तब तक बीवी का पानी बोतल खतम हो गया है माँगने पर दुसरा बोतल स्टाफ ने मना कर दिया है।पति बौखला गया है और कंप्लेन बुक मँगाया है।बीवी पति को कोस रही है"आप हे एक बोतल पानी नय आता है।दुकान मेँ त शेर बनके गलियाते हैँ स्टाफ को।ईहाँ बोली नय खुला"।पति माथा धर बैठ गया है।ईधर बहाना मिला है के लोग पुनः रेल व्यवस्था को गरियाने मेँ लग गये हैँ।पिछले सारे रेल मंत्रियोँ के कुल खानदान का हिसाब कर रही है यात्री जनता।तब तक गणपत जी ऊपरी बर्थ से बोले हैँ"अरे अंबुज जी रात के जगले रहियेगा।दो बजे आयेगा पटना।वैसे भानू,रामपरवेश,जगनारायण,मनचल,परशु,मुनिराज सबके फोन कर कह दिये हैँ कि राते 1 बजे जगा देगा।पटना आवे से पहले"।ये सून मैँ भी निश्चिँत हूँ..मुझे भी पटना उतरना है।जय हो।

"रेलगाड़ी"

"रेलगाड़ी" मेरे जीवन मेँ एक शिक्षक,एक संस्थान,एक गाईड की तरह है। मैँने न जाने देश दुनिया के कितने रंग इसी रेलगाड़ी मेँ देखे और न जाने कितनी बातेँ जानी सीखी और न जाने कितने दर्शन समझे।मैँ खोरठा बोलने वाला झारखंडी खाली रेल चढ़ चढ़ कर मैँने मागधी,मैथिली,बांग्ला,अंगिका,भोजपुरी,मारवाड़ी,छत्तीसगढ़ी और मोटा मोटी पंजाबी टाईप जैसी कई तो भाषाएँ सीख ली। कहीँ जाऊँ ना जाऊँ पर दिल्ली हावड़ा करते करते ही उत्तर दक्षिण-पुरब पश्चिम पुरे भारत का रंग ढंग साईड अपर सीट पर बैठे बैठे देख लिया।अब देखिए न रेल क्या क्या सिखाता और कर के दिखाता है।एक छोटी घटना देखिए। अभी घर को जा रहा था।रेल मेँ एक परिवार साथ साथ सफर मेँ था। रात को जब पति पत्नी बच्चे सब खाना निकाल बाँट खाने लगे तो एहसास हुआ कि "एक रेलगाड़ी ही ऐसी जगह है जहाँ एक मध्यम वर्गीय शहरभोगी भारतीय परिवार अपने पुरे सगे-सदस्योँ के साथ बैठ के सुकुन के साथ खाना खाता है"।ना कोई हड़बड़ी ना कोई फोन ना जल्दी जल्दी खा के काम को भागने की टेँशन। नही तो देखिये न साहब एक शहरी "मीडिल खलास"(क्लास:-)) परिवार की दिनचर्या।सुबह 6 बजे बच्चा उठ जाता है,मम्मी पहले हड़बड़ हड़बड़ बुतरूआ को जैसे तैसे पोँछ कपड़ा पहिना तैयार करती है, फिर बेचारी बिना मुँह धोये बिना नहाये दौड़ी किचन जाती है,बच्चे का नाश्ता खाना पैक किया, एक हाथ मेँ सेँडविच और दुसरे मेँ एप्पल थमा स्कुल बस तक छोड़ आयी।इधर बच्चे को छोड़ आई कि 7.30 तक बच्चे के पापा जग गये,पेपर पढ़ते हुए चाय पिया, जल्दी जल्दी नहाया फिर अकेले टेबल पर पत्नी ने नाश्ता कराया और निकल गये काम पर।तब जा के पत्नी नहाई और अकेले दिन का खाना खाया।3 बजे बच्चे स्कुल से आये,माँ ने खाना गर्म कर बच्चे को खिलाया।शाम को थका हारा पति आया!अकेला टीवी देखता हुआ चाय पिया।तब तक बच्चे खेल कुद के आये।जल्दी खा के पढ़ने बैठे और सो गये।तब तक पापा को भुख लगी।पत्नी किचन से गर्म गर्म रोटी सीधे निकाल खिलाई,पति भी गया फिर सोने,अंत मेँ थरिया कढ़ाही समेट 10.30 तक पत्नी ने खाना खाया। मतलब शायद ही कोई ऐसी तारिख हो जब पुरा परिवार एक साथ तीन टाइम खाना खा पाये। पर भारतीय रेल जिँदाबाद।8 बजे थे कि सीट के नीचे से झोला निकाला,डब्बे से पुड़ी निकाला,प्लेट मेँ आलु गोभी का भुजिया।तब तक मेँ पति ने कहा"पीला वाला पॉलिथिन किधर रखी हो,उसमेँ अँचार होगा निकालो"!इतने मेँ अपर सीट से पलटु उछल के नीचे आया"पापा हमुँ खायेँगेँ"! मम्मी ने तब तक कहा "चलो रिँकीँ को जगाओ"।इतने मेँ पत्नी ने लाल डिब्बा निकाला" ऐ जी एगो पेड़वा ले लिजिए नय त फेर खराबे न होगा"!पति ने एक पेड़ा उठाया,दो पुड़ी अपनी से ले पत्नी की तरफ सरका दिया।इधर पल्टु चिल्लाया"मम्मी तीता लगा.बाप रे पानी दो,नय पापा पेप्सी"। "चुप माजा रखा है पीयो पहले" तुरंत निकाल दिया मम्मी ने।पेपर बिछा है,पुरा परिवार एक साथ हिचक लटक के चलती ट्रेन मेँ जिँदगी का सबसे सुकुन वाला डिनर कर रहा है।रेल अगर 10-20 घंटे लेट है तो क्या साहब।एक शानदार यादगार डिनर और बन जाता है:-)सच रेल को घर मान कर केवल भारतीय ही यात्रा करता है और रेल को घर बना कर उसके साथ कुछ भी केवल भारतीय ही करता है साहब:-)।एक भारतीय ही है जो ये कतई नहीँ सोचता कि वो एक 10-20 घंटे के सफर का एक यात्री भर है और किराया दे के चढ़ा है फिर अपने स्टेशन उतर जायेगा, वो अपनी सीट से इतने भावनात्मक रूप से जुड़ जाता है कि जैसे वो सीट उसने बड़का बाबू से हिस्सा कर कोर्ट मेँ केस कर जीत के पाया है:-) "भारतीय रेल" की बात...हजारोँ बातेँ हैँ।एक एक कर जो देखा समझा सुनाता रहुँगा कभी कभार जी:-)।सच रेल कितनी भी लेट पहुँचे पर भारतीय रेल मेँ जीवन बड़े गति मेँ होता है साहब।जय हो

Sunday, February 7, 2016

मेगा दानवीर अमिताभ बच्चन

महानायक "अमिताभ बच्चन" मेरे सबसे पसंदीदा अभिनेता हैँ,मतलब ये मुझे इतने प्रिय हैँ कि अपने बाद सबसे बड़ा हीरो मैँ इन्हीँ को मानता हुँ:-)।फिलहाल ये रसोई गैस सब्सिडी छोड़ने को लेकर श्रद्धा के ताजा उदाहरण बन छाये हुए हैँ।संयोग से मैँ दो दिन पहले इनके घर पर ही था जब इनके यहाँ परिवार मेँ आपस मेँ सब्सिडी को लेकर मंथन चल रहा था।उस पुरे मार्मिक क्षण को जो मैँने अपनी आँखोँ से देखा,आपको बताता हुँ।उस दिन बच्चन साब दोपहर ही घर लौट आये थे।आते ड्राईँग रूम मेँ ही बैठ गये और सेवक चंदु को आवाज दे एक लोटा ठंडा पानी मँगवाया।हथेली को गाल पर टिकाये सोफे पर बैठे बच्चन साब उस समय किसी गहरे सोच मेँ डुबे लग रहे थे।तब तक जया जी पानी लिये कमरे मेँ आई।बच्चन साब देखते बोले"अरे आप क्युँ लेते आईँ,उफ्फ चंदु कहाँ है?"।"वो अभिषेक के साथ खेल रहा है,अभिषेक अकेला बैठे बैठे बोर हो जाता है,मैँने चंदु को कह रखा है कि तू छोटे साब के साथ ही खेला कुदा कर,उनका मन लगा रहेगा"-जया जी ने पानी ग्लास मेँ डालते हुए कहा।बच्चन साब कुछ नहीँ बोले,पानी पी एक लंबी साँस ली और सर उठा आँखोँ को बँद कर सोफे पर पीछे की ओर अटक गये।"आप परेशान नजर आ रहे हैँ,क्या बात है?कुछ बताईये न"-जया जी ने सोफे पर खड़े होके बच्चन जी के सर पर हाथ रखते हुए पूछा।बच्चन साब ने उन्हेँ बगल मेँ बिठाते हुए कहा"अरे कुछ नहीँ,चिँता की कोई बात नहीँ।बस एक निर्णय लेना चाह रहा था,आपलोगोँ से सलाह लेना चाहता हुँ"।"क्या?"जय जी ने पूछा।"सोच रहा हुँ घर का रसोई गैस सब्सिडी छोड़ दुँ"-बच्चन साब ने जया जी के आँखोँ मेँ देखते हुए।"क्यायाया?पागल हो गये हैँ आप?"-जया जी चीखते हुए उठीँ और उनके हाथ से लग के पानी का लोटा टेबुल से लुढ़क कालिन पर गिर गया।"अरे आप सुनिये भी तो,क्या दिक्कत है,हम बाजार मूल्य पर खरीद लेँगे,बाबूजी के आशीर्वाद से इतना तो कमा ही लेता हुँ,आप भी ठीक ठाक सासंद हैँ,दिक्कत हुई तो खाना संसद कैँटिन से मँगा लिया करेँगे।"-बच्चन साब ने उठ कर जया जी की बाँह पर धीमे से हाथ रखते हुए कहा।पर जया जी का पारा गरम था,उन्होँने झल्ला कर कहा-"आप बैठ कर यही सब अनाप शनाप सोचते रहिये,मुलायम अमर की संगत तो छुट गई पर आपका समाजवाद नही उतरा है अभी"।बच्चन साब ने उन्हेँ साथ सोफे पर वापस बिठाते हुए समझाते हुए कहा-"आप समझने की कोशिश करिये,आखिर क्या हमेँ बस खुद के लिए ही सोचना चाहिए?कुछ देश के गरीबोँ की भी तो सोचिए।देखिये देश की स्वच्छता के लिए मोदी जी तक ने झाड़ु उठाया,अंबानी ने हरे पत्ते चुने और हम 300-400 रूपये नहीँ दे सकते क्या?आप सोचिए इस बड़ी रकम से लाखोँ बुझे चुल्हे वाले घर मेँ चुल्हा जल उठेगा।"।जया जी थोड़ी नरम होते हुए बोलीँ"देखिए जी आप बस देश देश सोचते हैँ।मैँ एक माँ हुँ,मेरा भी तो दिल है,मेरे लिए पहले अपना बेटा है फिर कुछ आता है।आप सोचो बेचारा प्यारू अभिषेक का क्या होगा?ना कोई फिल्म मिलती है।मिलती भी है तो चलना छोड़ो हिलती भी नहीँ है।उपर से बहु का खर्चा।एक बार कान महोत्सव घुमने जाती है तो एक पासबुक खर्च कर जाती है,गाउन,लिपिस्टिक और अभिषेक की टिकट खाना पीना और पोती के कपड़े लते की शॉपिँग का खर्च।कैसे चलेगा ये सब।कम से कम सब्सिडी का गैसा रहेगा घर मेँ तो बुरे वक्त मेँ खिचड़ी तो पका के खा पायेगा हमारा बेटा"।बच्चन साब ये सुन खड़े हो गये बेचैनी मेँ कमरे मेँ टहलने लगे।टहलते हुए वो दिवार पर टँगी "हरिवंश राय बच्चन साब" की तस्वीर के सामने खड़े हो गये।एकटक तस्वीर को देखे जा रहे थे मानो कह रहेँ होँ कि,बाबुजी अब आपही कुछ रास्ता दिखाईए।5 मिनट बाद अमिताभ वापस सोफे पर आ बैठे और बोले-"देखिये आप बात ठीक कह रही हैँ।पर ये भी तो देखिये कि अब बहु भी फिर से कमाने लगी है,इनकी फिल्म जज्बा आ रही है।कल इरफान भी बता रहे थे कि फिल्म हिट जानी चाहिए।सो एक बार प्लीज आप सोच के देखिए,हमने कई लोगोँ से कह भी दिया है कि मैँ सब्सिडी छोड़ रहा हुँ।सम्मान फँसा हुआ है और बाबूजी कहते थे कि बिना सम्मान भला कैसा जीवन"।पर जया जी कहाँ समझने वाली,फिर गरजी-"ये बाबुजी आपको कुछ घर द्वार के बारे मेँ समझा के नहीँ गए न?देख लिजिए जी जाईये ठीक है छोड़ दीजिए सब्सिडी पर एक शर्त है।सब्सिडी केवल आपके कार्ड पर छुटेगा।मेरा,बहु और अभिषेक के कनेक्शन पर नहीँ।और दुसरी कि ये लास्ट बात मानी तुम्हारी।अब आगे अभिषेक वाली मनरेगा कार्ड छोड़ने और ऐश्वर्या को किशोरी कौशल योजना का लाभ लेने भी छोड़ने मत कह देना"।"मंजुर देवी जी मंजुर,चलो नहीँ कहुँगा ये सब"-बच्चन साब ने सुकुन से हँसते हुए कहा।इतना कहते ऐश्वर्या आ जाती हैँ।"ओ पापा यु आर ग्रेट,आज शुटिँग पे पता चला कि आप गैस सब्सिडी छोड़ रहे हैँ,पूरे बॉलीवुड को आप पे प्राउड है पापा,सब आपको ग्रेट कह रहे थे"-आते ही ऐश ने गले लगाते हुए कहा।"हा हा ओ थैँक्स बेटा,चलो अब जरा मीडिया को फोन लगाये और बता देँ"-कह कर बच्चन साब ने दैनिक जागरण के संजय गुप्त को फोन लगाया।खबर सुनते ही गुप्त जी की आवाज आयी"क्या कह रहे हैँ सर!इतना बड़ा फैसला।सर आप पहले इतने दानी अरबपती हैँ।सर आप महान हैँ।मोदी जी प्रेरणा का असर है ये।काश देश के सभी अरबपति आपकी तरह रसोई पर सब्सिडी छोड़ देँ तो आज हमारा देश फिर सोने की चिड़िया बन जाय।मैँ छापता हुँ तुरंत ये खबर।बड़ी खबर है।त्याग की नई मिसाल।"। इतना सुन बच्चन साब गर्व से फुले फोन काट ऐश और जया से लिपट गये।तब तक अभिषेक भी आ गये और बच्चन साब की पीठ पर चढ़ गये मारे खुशी के।पुरा परिवार भावुक था।ये भावुक सीन देख मुझसे रहा ना गया।मैँ भी आँसु लिये जा के उन सब से लिपट गया।मुझे देखते बच्चन साब ने हड़बड़ा कर चौँके और लात मार गिरा दिया।"कौन हो तुम,यहाँ कैसे आ गये"बच्चन बोले। मैँ इतना ही बोल पाया"साब जिस घर मेँ सब्सिडी,मनरेगा और किशोरी कौशल योजना आ सकती है,उस घर मेँ मुझ गरीब को देख अचरज कैसा"।सुनते ही जया जी चिल्लाई-"गार्ड बुलाओ,पीटो और बाहर फेँको इसे,इसकी जेब देखो इसने अभिषेक का मनरेगा वाला जॉब कार्ड तो नहीँ चुराया"। गार्ड दौड़े आये और मैँ सड़क पर पड़ा हुँ अभी।जय हो

पीजिये दारु..मार्क्स जो बनना है

कल कुछ युवकोँ को युँ ही एक चौराहे के पास "दारू" पीते देखा।सब सिविल की तैयारी वाले छात्र ही थे और राम की रावण पर जीत की विजयादशमी इंजॉय कर रहे थे।"दारू" पीते देखने मेँ तो कुछ अचरज वाली बात नही थी पर उनका जो अंदाज और हड़बड़ी थी पीने वक्त उसने मेरा ध्यान खिँचा।एक ने झट से बंद पड़े मेडिकल स्टोर के सामने खड़े खड़े बोतल खोला"अरे भोँसड़ी के जल्दी गिलसवा निकालो,फेर जा के पढ़ना भी है"।दुसरे ने तुरंत पॉलिथिन से चार ग्लास निकाल चुकुमूकू बैठ जमीन पर रख दिया"डालो अब जल्दी,..ऐ मनोज जी भूजिया फाड़िये न"।मनोज जी ने धड़ भुजिया फाड़ सबको एक एक मुट्ठी बाँटा और दुर खड़े अशोक को आवाज लगाई"अरे अशोक भाई आईये न फटाक पीजिए महराज,ऊंहाँ हिस्ट्री बाद मेँ पेलियेगा"।दारू ग्लास मेँ डलते सबने बिजली की गति से ग्लास उठाया और एक दुसरे से अलग मुँह घुमा के आँख मुँद एक गटके मेँ पी लिया और ग्लास इस झटके से फेँका जैसे खून का साक्ष्य मिटा दिया हो।भक्क मुँह मेँ भुजिया डाला और ये कहते हुए निकल लिये"तब अबकी यूपी लोअर मेँ गर्दा उड़ाईयेगा कि नही अशोक भाई.."।सब कुछ इतनी तेजी से घटित हुआ मानो दारू नही बल्कि चाँदनी चौक मेँ बम प्लांट करके निकले होँ चारो लौंडे।ये कैसा पीना है मित्र:-)।"दारू" आज भी इस देश का सबसे सनसनीखेज पेय पदार्थ है।पीने वालो ने इसे प्रगतिशिलता और आधुनिकता से भी जोड़ जाड़ कर इसे सहज बनाने का प्रयास किया पर फिर भी "दारू"एक सहज पेय होने मेँ नाकाम रहा।कई विचारधाराओँ ने भारत मेँ इसे अपना वैचारिक पेय बना इसे मुख्य धारा का पेय बनाना चाहा पर बेचारे वो भी असफल रहे पर हाँ उनलोगोँ ने इसके एक बौद्धिक फलक को जरूर खोला और आगे चल आज दारू एक वर्ग के लिए बौद्धिक और प्रगतिशील फैशनेबुल पेय बना जिसे पीना और खुलेआम पीना आपको अच्छा फील कराता है।आपको जड़ परंपरा से मुक्ति वाला अहसास देता है।ये वर्ग जब फेसबुक पर दारू पीते हुए पोस्ट लगाता है तो वो महसुस करता है कि लो ये है मेरी आजादी,लो मैँने तुम्हारी सड़ी गड़ी वैदिक,पौराणिक सोच और जीवनशैली को "दारू"मेँ डुबा गला दिया।पर असल मेँ "दारू"कोनो इस या हमरे बाप की पीढ़ी की खोज थोड़े है जी।वैदिक काल मेँ दारू के दिवाने देवता"मुंजवत पर्वत बीयर बार"जा के सोमरस पीते थे।बिँबिसार ने दारू पी के कई दुश्मन दाब के मार दिया।फिर बुद्ध ने अंतिम समय दारू पिया।अशोक ने कलिँग के गम मेँ पिया और अहिँसक हो गये।अलाउद्दीन ने अपनी बाजार नीति मेँ बकायदा सैनिकोँ को सरकारी ठेके पर रियायती दारू पिलवाया।अकबर पी के रात भर तानसेन को गवाते और बीरबल से कुलेली करते।बाजीराव मस्तानी संग पी के युद्ध के साथ साथ रोमांस के भी शिखर पर पहुँचे।अंग्रेजो को दारू पिला पिला सिँधिया,होल्कर,गायकवाड और भोँसले ने अपना राज बचाया।गाँधी जी द अफ्रीका मेँ नस्लभेदी तनाव दारू पी के ही झेले।नेहरू जी ने माउंटबेँटन और एडविना के साथ दारू पी के ही कैबिनेट मिशन को साईड करवा भारत पाक बँटवारे के साफ मसौदे वाला फार्मुला तैयार करवा 15 अगस्त की आजादी सुनिश्चित की।ये अटल जी के दारू पीने के कारण ही आई हिम्मत थी कि अमेरिकी प्रतिबंधो को हटा सावन की घटा बताते हुए "परमाणु परीक्षण" किया और दुनिया हिला दी।अब हमारी पीढ़ी को लगता है कि "दारू"तो बस उनका फैशन है:-)।लेकिन प्राचीन काल से आज तक के गौरवमयी इतिहास के बावजूद दारू एक सर्वमान्य सहज पेय बनने मेँ नाकाम रहा।इसको एक वर्ग या तो बुरा व्यसन समझता है या कोई वर्ग प्रगतिशीलता का पेय पर है ये सनसनी ही।आप इसे या तो छुप के पीते हैँ या तो ऐसे दिखा के कि ये देखो मैँ दारू पीता हुँ,है तुम मेँ इतनी आधुनिक सोच।पर आप अभी भी दारू को कभी लस्सी या शर्बत की तरह पीने की औकात नही पैदा कर पाये।असल मेँ दारू क्या करे।जैसे पानी मेँ जो रंग डालिए उस रंग का हो जाता है वैसे दारू मेँ जो चरित्र घुलता है दारू उस रंग का हो जाता है बेचारा।जब ये दारू किसी रिक्शे वाले के पेट जाता है तो आपस मेँ गाली गलौज माथा फोड़वा देता है।जब ये हरिवंश बच्चन जी की कलम मेँ बहता है तो "मधुशाला" लिख देता है।किसी नेता के मुँह लगता है तो लोकतंत्र के कोठे पर कोई ममता कुलकर्णी रात भर नाचती है।यही दारू जब किसी शायर के दिमाग मेँ घुलता है तो लिखा जाता है"तू हिँदु बनेगा न मुसलमान बनेगा,इंसान की औलाद है इंसान बनेगा"।यही जब नरेंद्र चंचल के कंठ उतरता है तो माता के जयकारे से दुनिया गुँज जाती है और यही जब बसंत विहार के किसी चलती हुई बस मेँ कुछ हरामियोँ के रगो मेँ बहता है तो इंसानियत शर्मसार हो जाती है।दारू कुछ नहीँ।आप तय किजिये की आप कैसे हैँ।छुप के गीदड़ टाईप और खुल के लुच्चा टाईप पीना छोड़िये।पीते हैँ तो सहज हो पीजिए या मेरी तरह पीते देखिये खुशी खुशी।और जीवन मेँ एक सुझाव जरूर ध्यान रखना कि कभी किसी पीने वाले को दारू छोड़ने की सलाह मत देना:-)दुनिया मेँ इससे बड़ी बेवकूफी कोई नहीँ।दारू पीने वाला यमराज के भैँस पर भी बैठ बोतल खोल पी लेगा,वो आपकी क्या सुनेगा।खैर,आप दारू पी के भी नेहरू नहीँ हो सकते और ना दारू से दूर रह दयानंद सरस्वती।अच्छा तो गाँजा पी के भी अच्छा है और कुकर्मी शर्बत पी के भी कांड कर सकता है।रही बात बड़े बुजुर्गोँ के "दारू" को गंदा पेय मानने के भ्रांति की तो इस पर बस यही कहना चाहुँगा कि बड़े बुढ़ोँ को बकने दीजिए,अजी दारू चरित्र थोड़े खराब करता है,ये तो बस किडनी और लीवर खराब करता है:-)।ये तो डॉक्टर ठीक कर देगा।है न:-)।पर ध्यान रहे,जिनका ठीक ना हो पाया,वो पहले किडनी से जाईयेगा,फिर दुनिया से जाईयेगा।पत्नी छाती पीट लाश पर रोयेगी।बच्चे बिलखेगेँ।आप तो चल दिये पी के तिलहंडेपुर।अब रह गया परिवार जिँदगी को घसीट घसीट ढोने को।कमाये कौन और खाये कौन।बस कई बार कई परिवार ऐसे ही गड़बड़ा जाता है न चचा:-)।सो पीजिए।कुबेर टाईप लोग पियेँ,उनका तो सँभल जायेगा।आय से छोटे मँझोले पर सोच और बौद्धिकता मेँ बड़े लोग थोड़ा सँभल के पियेँ।ध्यान रखेँ आपका जीवन परिवार खातिर अनमोल है और मरने के कई खतरे रोज खुद हैँ सर पे।बाकि दारू अच्छी चीज है।पीजिए न,हमको का।जय हो।

शाही स्नान

"शाही स्नान":-)महराज ई भी कोई शाही स्नान है।ये हजार की संख्या मेँ हाथ मेँ डमरू त्रिशुल लिये एक साथ नंगा पुँगा हुए देह मेँ कादो कीचड़ भूत भभूत घसे एक दुसरे पर चढ़े ठेलम ठेली हुरकुच्चा हुरकुच्ची किये अघोरियोँ का चिचियाते हुए पानी मेँ डुबकी लगाना और फिर पुनः भूत भभुत मले निकल लेना, ये आपको "शाही स्नान" दिखता है?पोखरा मेँ भैँस भी ऐसहीँ त नहाता है। साहब "शाही स्नान" देखना है तो आईये कभी किसी गाँव मेँ और देखिये नयका नयका ससुराल आये "पाहुन" यानि "दामाद" mean "जीजा" का स्नान:-)।सुबह होते पाहुन को तकिया के पास ही ठीक कान से सटे गिलास भर गर्म चाय रख राजकीय सम्मान के साथ जगाया जाता है।चाय पीने के बाद पाहुन देह हाथ ऐँठते खटिया से उठते हैँ और मँझले साले की तरफ देख हल्का मुस्कुराते हैँ कि साला झट गमझा के नीचे खैनी रट ऐसे सफाई से खैनी जीजा तक पहुँचा देता है जैसे पलक झपकते सर्बिया के रिफ्युजी हंगरी पहुँचा दिये जाते हैँ।अब शुरू होती है पाहुन यानि जीजा की शाही स्नान यात्रा:-)।तीन साले पाहुन को स्कॉट करते हुए कुँआ की तरफ निकलते हैँ।छोटका बंटु बाल्टी लोटा और सरसोँ तेल ले के लेके आगे आगे चलता है,सबसे छोटका संटुआ गमझा,लुँगी,कटोरी मेँ दुध बेसन और नीँबु का लेप,सिँथॉल साबुन लिये चल रहा होता है।एक साला खैनी रटाते खिलाते और मोबाईल पर भरत शर्मा ब्यास का गाना फूल साउंड मेँ सुनवाते हुए एकदम साथ साथ चलता है।कुआँ पर पहुँचते ही पाहुन अपनी गंजी लुँगी खोल हवा मेँ उछालते हैँ जिसे लपक कर मँझला साला कैच करता है।तब तक बंटु कुँऐँ से एक बाल्टी पानी निकाल मुंडेर धो के वहाँ पाहुन के बैठने की जगह बना देता है।पाहुन बैठ के गाल पर बेसन घसतेँ हैँ और इधर संटुआ पीठ पर सरसोँ तेल रगड़ रहा है तब तक जीजा मँझले से कोई फिल्मी गाना का फरमाईश कर देते हैँ"अरे जरा कुमार सानु का कोनो लगा दीजिए घोल्टन जी"मँझला साला घोल्टन तुरँत पैँट की जेब से दुसरा मेमोरी कार्ड निकाल अंदाज फिल्म का गाना "आयेगा मजा बरसात का" लगा देता है।इधर बँटु बाल्टी भरे जा रहा है और संटुआ लोटा लोटा पानी डालते जाता है पाहुन पर,इतने मेँ घोल्टन जेब से क्लीनिक प्लस सैँपु का छोटा पाउच निकाल उसे फाड़ पाहुन के सर पर गिराता है।संटुआ एक छीँटा उस पर पानी का मारता है।पाहुन एकदम फेने फेन हो जाते हैँ,सारा कुँआ गमगम करने लगता है,बगल मेँ रोपे प्याज की बाड़ी मेँ भी पाहुन की खुशबु उतर जाती है कुँआ से खेत जाती नाली के रास्ते।पाहुन देह मेँ लगाने के लिए जैसे साबुन उठाते हैँ कि घोल्टन"अरे अरे आप छोड़ दीजिए न जीजा जी,संटुआ घस देगा,ऐ संटु बढ़िया से मल दो साबुन तनी"।करीब 5 मिनट फेन से खेलने के बाद अब बंटु सीधे बाल्टी बाल्टी पानी पाहुन पर डालता है।करीब दस बाल्टी के बाद"जीजा जी कैसन लग रहा है,फरेश हुए कि नहीँ":-)।"हाँ एकदम टनटन हो गया हो,लाईए गमझा जरा"।सुनते संटुआ गमझा देता है,फिर पाहुन लुँगी गँजी बदलते हैँ।घोल्टन कहता है"अरे संटुआ,तूम लोग जीजा के लुँगी जंघिया खंगार धो के आव,हम इनको ले के जाते हैँ,ढेर धूप हो रहा है"।पाहुन फरेश हो पुनः ससुराल गेँदा फूल की तरफ बढ़ते हैँ।गुरू ई हुआ ना"शाही स्नान":-)भइया हम गाँव के लोग हैँ,इतनी ही दुनिया देखी है और जितनी देखी है उसमेँ"जीजा के स्नान" से ज्यादा "शाही स्नान" हमने तो नहीँ देखा।क्षमा करियेगा।जय हो।।

विश्व पुस्तक मेला

"विश्व पुस्तक मेला"..मेला मेँ जाईए और चुपचाप कोई कोना पकड़ आधा एक घंटा शांति से खड़ा हो पहले मेला देख लिजिए तब अपने काम मेँ लगिए।हॉल के अंदर घुस कोना पकड़ा ही था कि देखा एक नारंगी रेशमी धोती पहने धर्म विक्रेता अपने सतगुरू की लिखी किताब और सीडी लिए एक सज्जन को पकड़े पेल रहे हैँ"ये विज्ञान ने देश का कबाड़ा कर दिया,ये ईश्वर को नकारता है और पाप को बढ़ावा देता है।पश्चिमीकरण के कारण आज वेद और पुराण के चमत्कार को पीछे धकेल ये नकली लोग विज्ञान लेके आ गये हैँ।आप अपनी दिव्य परंपरा को फिर से जीवित कर भारत को विश्व गुरू बनाना चाहते हैँ तो ये किताब और ये सीडी लिजिए।आईए दो मिनट टीवी स्क्रीन पर उनकी अमृत वाणी सुन जाईए,चित्त को बड़ा आराम मिलेगा"।मैँ पीछे खड़ा था।बबवा का अमृत वचन कान मेँ तो अमृत की तरह गया पर जहर बन मेरे मुँह से निकला"अच्छा गुरू जी ये बताईयेगा जरा सा कि ये सीडी आपके गुरूजी के ज्ञान से बना है और ये टीवी स्क्रीन गुरूजी के ज्ञान से बना कि नकली पापी विज्ञान से?"इतना सुनना था कि वो बिना भड़के एक छेछड़ी मंद मुस्कान के साथ बोला"श्रीमान आप आगे निकल लेँ,मार्क्सवाद और कम्युनिज्म आगे के काउंटर पर बिक रहा।आपकी पसंद की चीजेँ वहाँ मिलेँगी।आप वहाँ चले जाईये।हमेँ अपनी बेचने दीजिए"।उसके इस शानदार बयान को स्वीकार कर आगे बड़ा था कि देखा एक काउंटर पर एक अधपके उम्र का आदमी एक हाथ मेँ चाय लिए बड़े कर्तव्य भाव से बाबा अंबेडकर पर लिखी किसी पुस्तक के पन्ने पलट रहे थे कि अचानक उन्हेँ किसी ने पीछे से धक्का दिया और वो अकबका के उछले और गर्म चाय उनके हाथ से टघरते टघरते पैँट होती हुई ऐँड़ी तक चली गई।वो बड़े सौम्य तरीके से चिचियाते झल्लाते हुए पीछे की तरफ ये बोलते हुए मुड़े"ओ सीट!किस मनुपुत्र ने धक्का मार जला दिया यार"।पीछे मुड़े तो अवाक् रह गये।ये उनका 10 वर्ष का बेटा था जो अपने बाप की बौद्धिक सनक का शिकार हो 6 घँटे से बाप के पीछे स्टॉल दर स्टॉल घुम रहा बच्चा था जो अब बाहर निकल कुछ खाना पीना चाहता था।"पापा अब चलो न भुख लगी है।कितनी देर रहोगे और।चलो न चलो न प्लीईईज पाअपा"।मुझे पहली बार समझ आया कि हर बार आदमी मनुपुत्र के हाथ ही नही जलता,कभी कभी अपना पुत्र भी जला देता है।थोड़ी देर मेँ देखा एक स्टॉल पर एक सज्जन बड़ी गंभीरता से किताबेँ छाँट रहे थे।उन्होँने पहले अब्दुल कलाम साब की अग्नि की उड़ान उठाई।फिर अमृत्य सेन की किताब,फिर नंदन नीलकेणी की,फिर एक किताब शशि थरूर की,आगे अंग्रेजी डेस्क पे गये और सलमान रूश्दी और अमिताभ घोष की दो किताबेँ उठाईँ।मैँ समझ गया आदमी तराशा हुआ बुद्धिजीवि है।सज्जन फिर सारी किताब रख वापस हिँदी डेस्क पर आये और आखिर मेँ एक किताब उठा कर बिल काउंटर पर रख दिया।मैँने जिज्ञासावश उछल कर झाँका कि आखिर इतना चमकीला बुद्धिजीवी क्या पढ़ता है देखुँ।किताब का नाम था"असाध्य रोग एवँ उसका निदान @लेखक हकीम तूफानी,डायमंड प्रकाशन।मैँ हक्का बक्का।तब जाना कि आदमी ऊपर से कितना भी टीप टॉप हो पर अंदर से बड़ा बीमार है।एक स्टॉल पर एक 75-76 के बुजुर्ग को देखा जो शायद किसी के सहारे लाये गये थे पर ज्ञान बटोरने की धीमी गति के कारण अकेले अपने भरोसे किताब खोजने छोड़ दिये गये थे।उन्हेँ अपने चश्मे सहित अलग से अतिरिक्त लेंस लिए पुस्तक खोजते देखा।उन्होँने पहले हास्य व्यँग्य की पुस्तक उठाई पर देख रख दिया।शायद ये सोच के कि बुढ़ापा अपने आप मेँ एक व्यँग्य है जिँदगी का।फिर उन्होँने ये सोच की बुढ़ापा आखिरी बचपन होता है उन्होँने एक बाल साहित्य उठाया।पर कुछ देर मेँ उसे भी रख दिया।अंत मेँ उन्होँने जो किताब फाईनल कर खरीदी उसे देख खोपड़ी घुम गई।किताब का नाम था"सक्सेस सीक्रेट"।अब तक सोच रहा हुँ कि उम्र के आखिरी पड़ाव पर उस बुढ़े बाबा को ऐसी कौन सी गुप्त विद्या चाहिए और कौन सी सफलता के लिए।ये बुढ़ापे का नहीँ जीवन का चरित्र है,साला जब तक रहेगा तब तक कुछ ना कुछ चाहिए।सफलता नशा है,किसी भी उम्र मेँ यूँ हल्के मेँ नही उतरती।जिसकी उतर जाती है वही भारी व्यक्तित्व हो मोक्ष पा लेता है।एक बार ये भी सोचा कि बुढ़वा बड़ा जीवट है क्या,इस उम्र मेँ भी ये जतन।खैर जीवटता हो या अतिलालसा,मैँ इतने मेँ चाय पीने बाहर आ गया हुँ।मैँ हिँदी का लेखक,हिँदी का लेखक भले दिमाग से भले प्रेमचंद ना हो पर पेट मेँ एक निराला लिये घुमता है।जी हाँ पेट मेँ भूख से शिराएँ मरोड़ मारती हैँ पर कुछ खरीद खाना मुश्किल है।अंदर डेढ़ सौ रू मेँ छोला भटुरा और सौ रू मेँ राजमा चावल मिलता है।अच्छा था निराला कि आपके समय मेँ कोई विश्व पुस्तक मेला ना था और न कोई प्रगति मैदान ही था..वर्ना जान लिजिए आप किसी मेले मेँ ही भुखे मरते।किसी अज्ञेय से असाध्य वीणा तो साधी जा सकती है पर बाजार को भेदना मुश्किल है।फिर हम हिँदी वाले लड़ रहे हैँ..कोशिश और संघर्ष जारी है।कल आखिरी दिन है।जाईये मेला घुम आईये।जय हो।

डायन...हमारा मध्यकाल

कुछ महीने पहले एक घटना सुनी थी।घटना थी झारखंड की राजधानी से सटे कंजिया टोली गाँव मेँ पाँच औरतोँ को"डायन" कह के मार डाला गया।ये घटना सुन ली,कहीँ पढ़ा भी पर अब तक जेहन मेँ कहीँ ना कहीँ अटकी हुई है।साँस लेने के रास्ते आ जा रही है ये घटना।आदिवासी बहुल इस गाँव मेँ चार बच्चे बीमारी से मर गये।गाँव मेँ पंचायत लगी और कहा गया कि ये गाँव की उन 5 महिलाओँ ने अपनी "डायन सिद्धि"के लिए बलि ले ली है सो इन डायन महिलाओँ को मार दिया जाय नही तो और भी बच्चे मरते रहेँगे।बस इस फरमानी निर्णय के बाद ही उन महिलाओँ को घर से निकाल नंगा किया गया और दौड़ा दौड़ा कर भाले से गोद और पत्थर से कूच कर मार दिया गया।घटना पूर्ण हुई।क्योँकि इसके बाद कुछ ना हुआ।ना फेसपुक पर आँसु गिरे,ना खबरोँ मेँ आग लगी,ना कोई न्युज ब्रेकिँग हो पाया इन लोथड़ोँ पर,ना इन इनके खून के छीँटे रवीश के प्राईम टाईम की सरोकारिता वाले डेस्क तक पहुँच पाये कि देश इसे देख पाता,इस पर बात कर पाता,ना नारी मुक्ती के आंदोलनकारियोँ की भुजा फड़फड़ाई,कहीँ एक भी मोमबत्ती खर्च ना हुई।"डायन" क्या है?अगर बॉलीवुड मेँ बनी फिल्म"डायन" के नाम भर को छोड़ देँ तो इसके नाम तक से अनजान आज की टॉप स्कूलोँ मेँ पढ़ रही पीढ़ी को शायद ही इस शब्द की त्रासदी का अंदाजा हो।कहीँ कहीँ शहर मेँ गाँव की मिट्टी से पाउडर जैसा नाता रखने वाले नगरी परिवार मेँ दादी नानी के किस्सोँ मेँ चुड़ैल तक बात जाती है पर "डायन" को समझना वहाँ भी मुश्किल है।असल मेँ ये चुड़ैल की तरह कपोल कल्पित रोमांच का किस्सा नहीँ बल्कि 21वीँ सदी के उभरते भारत के दामन पर सबसे काले धब्बोँ मेँ एक है जिससे ग्रामीण आदिवासी क्षेत्र मेँ हर साल सैँकड़ो महिलाएँ मौत के घाट उतारी जाती हैँ।बचपन मेँ जब भी खेत खलिहान या सूने मैदान की तरफ निकल जाता तो अक्सर रास्ते मेँ कुछ सामान बिखरा पाता जिसमेँ लाल सिँदुर,कंघी,मिट्टी का दिया,लाल फीता इत्यादि होता था।घर आ के बताता तो सब कहते"अरे उसको छुए तो नहीँ,लाँघा तो नहीँ"।फिर मुहल्ले की तेतरी माय बताती कि ये सब डायन बनने वाली ने किया है,उसको छुना मत,जान ले लेगी।डर से हम नहीँ बताते कि उसका फीता हाथ मेँ बाँध क्रिकेट खेल आये और कंघी से बाल झाड़ चुके हैँ। मतलब ये हाल हमारे आसपास का था तो एकदम से देहात मेँ बसे शिक्षा से लाखोँ मील दूर बसे आदिवासी गाँव की हालत सोचिए?अकेले झारखंड मेँ पिछले एक दशक मेँ 1200 औरतोँ को डायन कर मार डाला गया है।अपने पंचायती राज पर इतरा रहे इस राज्य मेँ दशकोँ से पंचायती राजनीति और जमीनी झगड़ो के कारण भी डायन प्रथा को और बढ़ावा मिला जिसमेँ खुब दुश्मनी निकाली जाती है और जानबुझ कर किसी परिवार के किसी सदस्य को डायन बता दिया जाता है और इसका शिकार सदियोँ की तरह आज तक महिलाएँ ही हुई।कहीँ किसी गाँव कोई मवेशी,आदमी बीमार हुआ तो लोग इसे "टोना" का असर कहते हैँ और मानते हैँ कि ये टोना करने वाली टोनही का काम है जिसके वश मेँ भूत प्रेत है। ऐसे मेँ लोग कोसो दूर बैठे डॉक्टर के पास ना जा गाँव के ही "ओझा,गुनिया,बेगा"के पास जाते हैँ,ये आदिवासियोँ के बीच अपने झाड़ फूँक के लिए अपार श्रद्धा से देखे जाने वाले धँधेबाज हैँ।ये डायन का असर काटने के लिए दारू,मुर्गा,कबुतर और पैसा लेते हैँ और जब कभी इनकी योजना फेल हो जाती है और बीमार इनके चक्कर मेँ मर जाता है तो खुद पर आस्था को बचाने के लिए ये गाँव के किसी महिला को डायन बता देते हैँ और अंजाम उस महिला की नृशंस हत्या तक जाता है। इन्हीँ गुनिया और बेगा से पूछिए तो बताते हैँ कि टोनही/डायन जिसका बुरा चाहती है उसके घर के आगे सिँदुर,कंघी,हड्डी आदि रख देती है।ये अफवाह फैलाये रखते हैँ कि ये महिलायेँ टोना करती हैँ और नवरात्र,होली,दिवाली की अँधेरी रात मेँ नँगी होकर तंत्र साधना कर प्रेत को अपने वश मेँ करती है जिससे किसी का भी बुरा किया जा सके।गुनियाओँ द्वारा सदियोँ से चली आ रही ये अफवाहेँ अब एक काले और अंधे विश्वास के रूप मेँ स्थापित हो चुकी हैँ।डायन,टोनही,डाकन जैसे नाम देकर महिलाओँ को मारने का ये सिलसिला रोज जारी है।इन गाँवो तक ना शिक्षा और ना स्वास्थ्य सुविधाओँ की पहुँच है।झारखंड,छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल इलाके मेँ ये घटनाएँ इतनी आम हैँ कि इस पर कोई उबलता विमर्श आज तक ना हो पाया।लिव इन से लेकर किस ऑफ लव के लिए लड़ने वाली पीढ़ी के लिए ये मामला बिलकुल अरूचिकर और पागलपन सा लग सकता है।महिलाओँ के अधिकार को लेकर सोशल मीडिया पर रोज एक जंग जारी है पर वहाँ भी डायन नहीँ,देवियोँ की लड़ाई है।दिल्ली जैसे बौद्धिक विमर्श के इतने बड़े पटल पर जहाँ माहवारी से लेकर यौन के अधिकार को लेकर सैँकड़ो गोष्ठियोँ का आयोजन होता रहा है वहाँ भी डायन अपना दर्द दर्ज करा नहीँ पाई है।ये लड़ाई उन आदिवासी महिलाओँ की है जिनका पक्ष रखने के लिए अखबार,टीवी से लेकर सोशल मीडिया मेँ शायद ही कोई है।एक उभरते हुए देश के ठीक बीच मेँ ये सब हो रहा है और कोई प्रगति का ढाँचा या नारी सशक्तिकरण का अभियान ये कलंक मिटाये बिना कैसे न्यायसंगत और पूरा माना जायेगा।हम दलित,पिछड़े और आदिवासी की बात तो करते हैँ पर आदिवासी और उसमेँ भी महिलाओँ का पक्ष एक पूँछ की तरह है जो भारी भरकम चलताऊ रंग बिरंगे विमर्शोँ के बोझ मेँ कहीँ नीचे दब जाता है।आपमेँ से किसी को ईश्वर ना करे कि ये दृश्य ना देखने को मिले जब किसी को डायन बता कैसे नंगा घुमा,बाल काट,फिर जिँदा जला दिया जाता है,कहीँ काट दिया जाता है।हमारी बहनेँ सबरीमाला मंदिर मेँ घुसने के लिए लड़ रही हैँ।इधर तृप्ती देसाई शनि पर तेल डालने को बेताब हैँ,सारा देश नारीवाद की तेलीय लड़ाई मेँ जागरूकता के साथ खड़ा है।इसी बीच मेँ एक मर चुकी डायन आपसे बिना टोना किये याचना कर रही है कि इनकी आने वाली पीढ़ी को इस दंश से बचा लिजिए।एक बार पहले अपने विमर्श मेँ तो "डायन" को लाईए।जल जंगल जमीन के राजनीतिक फलदायी लड़ाई से कहीँ बड़ी लड़ाई है ये।ये उनके लिए मानवता की लड़ाई।जंगल जमीन पर अधिकार छोड़िये,पहले जीने की जमीन तो दीजिए। जय हो।

"लालटेन"..रौशनी का घर

कल आधी रात कुछ समय के लिए लाईट चली गई तो बिस्तर से अंदाजन उठ हाथ टटोल के मोमबत्ती खोजने लगा।5 मिनट किचन मेँ हाथ टटोलने के बाद एक आधी जली पिघली मोमबत्ती मिली।जैसे ही जलाने के लिए माचिस उठाया कि खयाल आया कि मैँ दिल्ली जैसे जागरूक महानगर मेँ हुँ जहाँ मैँने जाना कि"मोमबत्ती एक राजनीतिक वस्तु है जो रात मेँ नहीँ दिन मेँ जलाई जाती है और इससे प्रकाश नहीँ,भड़ास निकलता है"।इतना मन मेँ आते चुपचाप वापस जा रजाई मेँ घुस गया और तब याद आने लगा मुझे अपने गाँव का"लालटेन"।वो एक जमाना था जब गाँव के हर घर की चौखट पर शाम एक लालटेन जरूर टँगा होता था।मेरे पापा अक्सर कहा करते हैँ"दरवाजे पर ये दो चीजेँ रहनी ही घर को घर बनाती हैँ,एक तो साँझ को जलता लालटेन और दुसरा दुआर की चौकी पर बैठे बुजुर्ग"।हाँ उस समय गाँव मेँ भले बिजली नहीँ थी,पर रौशनी जरूर थी।मेरे दादा जो कि सरपंच थे वो तो साँझ होते हाथ मेँ लालटेन लिये एक बार मुहल्ला घुम आते कि कहीँ कोई समस्या तो नहीँ,कोई बीमार तो नहीँ..बुढ़ापे मेँ भी लालटेन की मीठी रौशनी मेँ उनको समस्याएँ साफ दिखती थीँ जो आज लोगोँ को जलते दुधिया लाईट मेँ भी धुँधली दिखती हैँ।वापस फिर देहरी पर बिछी चटाई पर आ के लालटेन रख देते थे जहाँ गाँव के कुछ बुजुर्ग जवान आधी रात तक ताश खेलते थे।लालटेन की धीमी ऊँची होती रोशनी मेँ भले ताश का पत्ता साफ दिखे ना दिखे पर लोगोँ का आपस मेँ स्नेह,घुलना मिलना और साफ दिल साफ साफ दिखता था।रात को सोने वक्त लोग खटिया के नीचे लालटेन जरूर रख सोते थे।केवल रात को खटिया के नीचे लालटेन का होना NSG कमांडो की सुरक्षा वाला विश्वास देता था।मन मेँ लगता था कि रात बिरात कोई बात हो जाए तो लालटेन है न,मान लो कहीँ कुछ खरखर की आवाज सुन ली,कहीँ कुछ धड़ाम की आवाज सुन ली,कहीँ गाय रंभाने की आवाज सुन ली,कहीँ लगा कि कुछ गड़बड़ है तो फटाक उठे और लालटेन तेज कर लाठी उठाया और ईलाका चेक कर आये।लालटेन हाथ मेँ हो तो बड़ी हिम्मत रहती थी।मतलब लालटेन रौशनी और भरोसा दोनोँ देता था।आज गाँव गाँव लाईट है,बिजली है पर रौशनी नहीँ।मुझे याद है कि हम शाम होते लालटेन जला पढ़ने बिठा दिये जाते थे।सूरज के ढलते जैसे हम नानी को लालटेन का शीशा पोछ के बाती डाल के लालटेन जलाने की तैयारी करते देखते हमेँ लगता जैसे कसाई याकूब मेमन के फाँसी की तैयारी कर रहा है।सात बजे मास्टर साब आते,वो खुद बाती का वोल्टेज बढ़ाते और हमेँ बीजगणीत बनाने देते।लालटेन के आसपास कई कीड़े मकोड़े आ के फड़फड़ाते और खुद जलती लौ की मुहब्बत पर कुर्बान भी हो जाते।मास्टर साब उन कीड़ोँ के पार्थिव शरीर दिखाते हुए कहते"चलो जल्दी बनाओ रे हिसाब,बैठ के कौँपी क्या ताकता है,साले कलम से कान खोद रहा है।जान लो अगर फेर गलत हिसाब बनाया तो ई कीड़वा जैसा फड़फड़वा के मारेँगे"।हम किसी तरह सही गलत हिसाब बनाते और मास्टर साब हमारा रोज हिसाब लगाते।हमेँ याद है कि,साँतवीँ के छात्र के रूप मेँ लालटेन की पीली रौशनी मेँ निर्मल कॉपी के हल्के पीले पन्नोँ पर जब हम गंगा नदी पर लेख लिखते थे तब "गंगा नदी" आज की तरह इतनी गँदी और काली ना थी साहब।अच्छा लालटेन तभी रौशनी के साथ साथ जिँदगी का प्रतीक भी था।रात के घुप्प अँधेरे मेँ किसी सुनसान पगडंडी पार करते जब दूर कोई लालटेन टिमटिमाती नजर आती,राहगीर जान जाता कि ओ आगे कोई गाँव है,कोई घर है।अच्छा लालटेन केवल घर ही नहीँ बल्कि भूत के भी काम आता था।मेरे पापा जब भी भूत का किस्सा सुनाते तो बताते"अस्पताल के पीछे वाले पोखर के जामुन पेड़ के पीछे एक सफेद साड़ी पहने औरत लालटेन लिये खड़ी थी"।सच दुनिया के किसी भूत के पास ना तब ट्युब लाईट या सीएफल था ना अब।अच्छा मेरे गाँव के घर अब भी जब कि चौबीस घंटे भड़भड़ाते जैनेरेटर की सुविधा है फिर भी चार लालटेन शाम को तेल भर तैयार रहता है।मैँ गाँव मेँ मुख्य घर से अलग गाय वाले गोहाल के पास खपरैल कमरे मेँ सोता हुँ और आज भी मम्मी एक लालटेन जला के मेरे खटिया के पास रख देती है और तब जा खुद निश्चिँत हो सोती है कि,चलो बेटे के पास लालटेन है,रात को डर नहीँ लगेगा।मेरे घर चार लालटेन का कारण ये है कि एक दो तो सदा मेरे पापा के उपयोग मेँ आता है।वो जब भी गुस्सा होते हैँ,सामने रखा लालटेन तड़ित चालक का काम करता है।मेरे पिता गुस्से मेँ अक्सर लालटेन पटक देते हैँ और इस तरह लालटेन हमेशा किसी भी दुसरी चीज को क्षतिग्रस्त होने से बचा लेता है।अब तो गाँव मेँ भी लालटेन लगभग लुप्त है और उसकी जगह चाईनिज लैँप आ गया है।इसकी सफेद रौशनी आँख को चुभती है।इसमेँ लालटेन वाली कोमलता नहीँ।लालटेन का पीला मिट्टी वाली रंग लिये रोशनी बड़ी मीठी होती थी।ये बात अलग है कि लालटेन को भी अब घर की चौखट से उतार राजनीति का चिन्ह्र बना चुनाव मेँ उतार दिया गया है।अभी अभी बिहार मेँ लालू जी ने नीतिश जी के गले मेँ अपने दो दो लालटेन टाँगे हैँ।एक का गाल फूला और "लाल" है,दुसरे का वजन लगभग"टेन" है।उम्मीद है कि अँधेर दिखते बिहार को थोड़ी रौशनी मिले।खैर राजनीति वाला राजनैतिक लालटेन तत्काल लालू जी का घर अंजोर किये हुए है।हमेँ तो अपने दुआर पर लालटेन बचाना है।इस बार सोचता हुँ कि,गाँव से एक लालटेन लेता आऊँगा।बड़े महानगरोँ की लाईट का कोई भरोसा नहीँ। और आखिरी बात,कि लालटेन हमारी जड़ोँ और हमारी मिट्टी से इतना जुड़ा हुआ है कि देखिये न उसमेँ "मिट्टी का तेल" जलता है।जय हो।

खुदखिंचन पद्धति ....सेल्फी

अक्सर आप पर्यटन स्थलोँ जैसे इंडिया गेट या ताजमहल कहीँ भी पर्यटकोँ को फोटो खिँचवा लेने के लिए कहते उनके आगे पीछे दौड़ते,उन्हेँ मनाते रिझाते फोटोग्राफरोँ को देखते होँगे।एक जमाना था जब इन फोटोग्राफरोँ का धंधा खुब चौकस और हिट था।पर समय बदला और जब से स्मार्ट फोन बाजार मेँ आये इन कैमरोँ के दिन लद गये और अब बड़ी मुश्किल से पेट चला पाते हैँ ये फोटोग्राफर लोग।मोबाईल से पहले के जमाने मेँ यही फोटोग्राफर थे जो हर पर्यटक की सैर को यादगार बनाते थे।मात्र आधे घंटे मेँ जब ये फोटोग्राफर आपको ताजमहल के साथ खड़ा कर फोटो मेँ उतार हाथ मेँ लिफाफा थमाते तो पैसा दे आदमी लिफाफा खोल पहले मिनटोँ खड़ा फोटो निहारता था फिर मुस्किया के बैग का चेन खोल उसके भीतरी खोल मेँ डाल लेता था फोटो।तब मुझे याद है कि गाँव से लेकर कस्बोँ और शहरोँ तक स्टूडियो का एक खास जलवा था।फोटो खिँचाने का एक कायदा होता था जिसे फोटोग्राफर लागु करता और खिँचाने वाले माननीय न्यायालय के आदेश की तरह मानते।वो जब हुँमायू के मकबरे पर खड़े गाँव से आये जोड़े को एक दुजे का कमर पकड़ने कहता तो कभी खुलेआम हाथ ना पकड़ने वाले जोड़े भी बेहिचक कमर पकड़ते।फिर वो कहता"जरा हँसिये।हाथ उपर करिये।पैर पीछे करिये।गर्दन दायेँ थोड़ा।इधर देखिये।मैडम आप भी हँसिये।आप भाई साब के कंधे पर रखिये हाथ।थोड़ा देखिये ईधर!" तो अभी अभी खरीदारी के वक्त हुए आपसी झगड़े के बाद तनाव के बाद भी वो जोड़ा हँसता था और फोटोग्राफर दोनोँ को करीब ला देता था।ये फोटोग्राफर ही थे जिन्होँने फोटो खिँचने का वो एंगल खोज निकाला था एक सिक्की से पतले आदमी के हथेली पर ताजमहल खड़ा हो जाता था,इंडिया गेट गढ़ जाता था।हर चीज को मुट्ठी मेँ बँद कर लेना,कदमोँ मेँ ले आना ये इंसान की शाश्वत इच्छा रही है..रावण से लेकर गाँव के प्रधान तक सब हथेली मेँ संसार चाहते हैँ।फोटोग्राफरोँ ने ही इस इच्छा को एक फ्रेम दिया और हर इंसान की दमित इच्छा को उकेर उसके हाथ ताजमहल तो कभी हथेली पर सूरज का एंगल दे उसके अहं को एक आत्मसंतोष दिया।दिल्ली घुमने आये मेरे गाँव के विभुती बाबू ने भी ऐसा एक फोटो संसद भवन के सामने घास पर लेट टाँग ऊपर उठा के खिँचवाया था जिसमेँ उनका लात संसद भवन के ऊपर दिख रहा था।वर्षोँ बड़े गर्व से वो फोटो दिखाते और हमसब आश्चर्य से उनका ये कमाल ऐसे देखते जैसे पाँच मुँह वाला शेषनाग देख रहे होँ।अच्छा तभी शादी ब्याह मेँ भी स्टूडियो का बड़ा महत्व था।मुझे अपने यहाँ के "केसरी स्टूडियो"मेँ जब भी कोई लड़की साड़ी पहन बायाँ हाथ नीचे किये,दाँयी हथेली बाँये के बाँह पर रखे और बगल मेँ एक लंबी टूल पर प्लास्टिक फूल का गुलदस्ता रखा फोटो खिँचवाते दिखती तो समझ जाईए ये लड़के वालोँ को पसंद के लिए जायेगा फोटो।उस वक्त फोटो खिँचाते लड़की का तनाव और वहीँ बैठे उसके पिता का तनाव बताता था कि ये UPSC के इंटरव्यु से ज्यादा नर्वस करने वाला पल होता था।पिता लगातार फोटोग्राफर से कहता"देखियेगा केसरी जी थोड़ा लंबा दिखे ई फोटो मेँ।और जरा हाथ पर वाला कटा का दाग बचा के।बढ़िया से खिँचिएगा।बहुत परेशान हैँ शादी के लिए।"।फोटोग्राफर फिर सबल देता"घबराईये नय,हमरा खिँचा रिजेक्ट नय हुआ है आजतक।बेजोड़ फोटो निकालेँगे"।मतलब तब फोटोग्राफर फोटो ही नहीँ,रिश्ते भी खिँचा करता था।मेरे गाँव था एक "माँ चंचला स्टूडियो और एक वीणा स्टूडियो"।मुझे याद है कि घर मेँ हर साल स्पेशल फरवरी मार्च के दिनोँ फोटो खिँचाने फोटोग्राफर आते।हम बच्चे छत पर जा अपने खिलौने एक चादर पर सजा देते और उसके बीच लेट फोटो खिँचाते तो कलैंडर ब्यॉय लगते:-)।फिर चलता पारिवारिक फोटो-सेशन।एक बार माँ दादी तो एक बार नानी की गोद मेँ।एक बार मौसी तो कभी बुआ के कंधे पर।ये फोटो आज भी मेरे लिए टाईम मशीन की तरह हैँ जो देखते उस उम्र मेँ पहुँचा देते हैँ।अब मोबाईल आ गया।पीछे 13 मेगापिक्सल तो आगे 8।दिया मोबाईल और फटाक खिँचा लिया,मेमोरी मेँ सेव।मोबाईल ने हर आदमी के अंदर एक विश्वसनीय फोटोग्राफर पैदा कर दिया है जो सब खीँच लेना चाहता है।जिस आदमी की मैट्रिक के पहले कोई पासपोर्ट साईज फोटो भी ना खिँचवाई थी घरवालोँ ने वो भी आज फोटोग्राफी को अपना पैशन बना चुका।ऊपर से जब से ये "खुदखिँचन पद्धति"(सेल्फी) चलन मेँ आयी है आदमी आत्मनिर्भरता के चरम दौर मेँ है।खुद का खुद खीँच रहा है।अच्छा जब रोज रोज अपना एक सा थोथना खीँच खीँच कर आदमी बोर हो रहा है तो मुँह की अजीब विचित्र भाव भंगिमा कर खीँच रहा है।कई युवतियोँ को देखा कमर को अजीब तरह लचका,होँठोँ को टेढ़वा गोल कर नाक को विचित्र तरीके से सिकुल और ऊपर के दोनोँ भँवोँ को जोड़ "खुदखिँचन"ले रही थी।हर आदमी के पास अब खीँचने का क्रेज है।मसलन कई को तो मोबाईल से ऐसा रोग लगा कि वो बकायदा कैमरा खरीद कुत्ता,बिल्ली,गिलहरी की फोटो खिँचते चलते हैँ।अब तो कैमरा खुब बिक रहा है पर फोटोग्राफर वाला युग गया जानिए।तब हम खिँचवाने के पैसे देते थे अब तो खिँचवाने के पैसे मिलते हैँ।हाँ ऐसे कई "खिँचरोगी" को मैँने सीपी और साकेत या हौज खास मेँ देखा कि गरीब के बच्चोँ पैसे दे के उन्हेँ बिठा कर फोटो खिँचते देखा।वो जितने गरीब हैँ उतने ज्यादा मोल हैँ उनके फोटो के।जितना मैला रहेँगे उतना साफ फोटो निकलता है।भुखमरी कंगाली के फोटो किसी भी अखबार या पत्रिका के लिए सबसे चमकदार फोटो साबित होते हैँ।जो जितना विभत्स है उतना दर्शनीय।थ्री इडियट के माधवन ने नई पीढ़ी को फोटोग्राफर बना दिया जिसे लगता है कि उसे रेँचो की दोस्ती मिल जायेगी।खैर आज भी बड़े फोटोग्राफर हैँ और बड़े स्टूडियो भी हैँ जो काले कमाई वाले काले आदमी के गोरे फोटो निकालते हैँ,उन्हेँ चमका के पेश करते हैँ।पर इधर मोबाईल से पैदा हुई शौकिया फोटोग्राफिक पीढ़ी ने खाने कमाने वाले छोटे मोटे फोटोग्राफरोँ का दायरा छोटा कर उनकी आय पर असर डाला है।टाँग खिँचने से लेकर फोटो खिँचने मेँ एक्सपर्ट इस पीढ़ी से उम्मीद करता हुँ अगली बार जब भी कहीँ जाईये तो एक फोटो इन कैमरे का बोझ उठाये फोटोग्राफर से जरूर खिँचवा लेना जी।जय हो।

शनिदेव- तेल का खेल, वेद पुराण फेल

हड़प्पा काल मेँ सबसे परम पद शिव को प्राप्त हुआ,वैदिक काल मेँ इंद्र देव और प्रजापति देवता का जलवा कायम रहा और फिर गुप्त काल से शुरू हो सदियोँ तक देखिए तो सबसे अधिक महत्व विष्णु और उनके अवतारोँ का रहा।पर अब जब आप 21वीँ सदी के भारत को देखिए तो पाईएगा कि,अचानक सबको पछाड़ते हुए अगर धर्म के बाजार मेँ कोइ सबसे तेजी से उछाल पाने वाला देवता हैँ तो वो "शनि देव" उभर कर आये हैँ।वैश्वीकरण और पूँजीवाद के दौर मेँ तैँतीस करोड़ देवताओँ मेँ यही एक देवता निकल के आये हैँ जिन्होँने वर्तमान काल और बाजार की नब्ज पकड़ी।जहाँ एक ओर गदा से लैस बलशाली बजरंग बली गाँव गली के चौराहे पर स्थापित एक बताशे और पुड़िया भर सिँदुर के लिए और महाकाल शिव एक बुँद गँगाजल के फेर मेँ लटपटाए रहे वहीँ शनि देव ने दुनिया के तेल और लोहा जैसे सबसे महत्वपूर्ण संसाधन को खुद से जोड़ बाजार का सबसे प्रभावशली देव होने का रूतबा पा लिया है।शनि देव ग्रहोँ मेँ न्यायधीश माने गये हैँ और जब दुनिया मेँ राग,द्वेष अपराध बढ़े,बाजारू गलाघोँट प्रतियोगिता बढ़ी और लगातार पाप दूराचार के केस बढ़ने लगे ऐसे मेँ शनि देवता के न्याय का मंदिर चल निकला।अब लोगोँ मेँ वर्षोँ की त्याग तपस्या और सद्आचरण से देवता को खुश कर फिर कृपा पाने का समय ना रहा।उन्हेँ तुरंत रिजल्ट चाहिए था।इस फार्मेट को समझते हुए शनि देव ने इस भरोसे को स्थापित किया कि वो तुरंत परिणाम देने वाले देवता हैँ और जो भक्ती और अराधना को देखकर प्रसन्न होने की प्राचीन परंपरा मेँ नहीँ बल्कि तत्काल मैटर के अनुसार तुरंत फैसला देने वाले देवता हैँ।अच्छा आज चुँकि संसार मेँ पाप बढ़ा सो लोग एक स्वभाविक नैतिक दवाब मेँ रहने लगे,जगत की इस कमजोरी को शनि देव ने पकड़ लिया।शनि समझ गये कि लोग को अब विष्णु कृष्ण टाईप सौम्य रूप से हड़काना मुश्किल होगा इसलिए उन्होँने अपनी एक आक्रामक छवि गढ़ी।वे समझ गये थे कि इस पापी और खुनी होती दुनिया को रामचरितमानस के चौपाई से नहीँ बल्कि भय से ही कंट्रोल किया जा सकता है।उन्होँने अपनी दो भोकाली कथाएँ भी बाजार मेँ चलवाईँ जिसमेँ उनका प्रचार हुआ कि शनि तो शंकर भगवान जैसे देव और रावण जैसे बलशाली को ना छोड़े थे,फिर तुच्छ मानव क्या चीज।अपने माहौल के अनुरूप उन्होँने खुद का गेट-अप भी खतरनाक बनाया। काली काया एवं काली मुँछ रखी, काला कपड़ा पहना,काले कौऐ को वाहन बनाया।अपने मंदिर का रूप रंग बदला।आप शनि मंदिर जाईए तो लगेगा जैसे किसी सैन्य शत्ति का खुफिया कैँप है।चारोँ तरफ काला ग्रेनाईट,काले झंडे और काला कपड़ा पहने कमांडो जैसा एक पंडा जो खैरियत की राईफल नहीँ रखता है।पर मिजाज मेँ इनका पंडा अन्य सनातनी पंडो से इतर बड़ा तपाकी और अक्खड़ जैसा करेगा।कभी बिना माँगे आशीर्वाद दे देगा तो कभी माँगने पर भी गरिया देगा।कभी बेमतलब हँस के माथे पर काला तिल छिटक देगा,गाल पर तेल घस देगा तो कभी मनहुस की तरह आँख तरेर कर देखेगा।मतलब ये पंडा बिलकुल अलग ट्रेनिँग पाये हैँ जो शनि के अक्खड़ और आक्रामक छवि का प्रतिनिधित्व करते दिखाई देते हैँ।अच्छा शनि देव ने अपनी पूजा मेँ पारंपरिक शैली को एकदम त्याग एक नया प्रारूप तैयार करवाया जो मध्य वर्ग के मिजाज को सूट करे।उन्होँने गणेश जी तरह मेवा और लड्डु जैसे घनघोर आउट डेटेट आईटम को हटा प्रसाद को नमकीन और तेलीय फ्लेवर दिया जो बाद मेँ उपयोग भी किया जा सके और उससे कुछ आर्थिक लाभ हो जिससे मंदिर की विधि व्यवस्था का खर्च चल सके।उनको सरसोँ का तेल चढ़ाया जाता है जो बाद मेँ हल्दीराम भुजिया वाले को बेचा जा सके।क्या पता कि कोई स्वदेशी कंपनी इनके तेल से तैयार"नवग्रह शांति भुजिया" बना बाजार मेँ उतार दे।आज शनि देव के पास तेल है,लोहा है,काला तिल का पहाड़ है,कपड़े का गोदाम है।मतलब केला और पेड़ा से अलग इनके पास वो टिकाऊ सामान है जिसे बाजार मेँ पुनः बेचा जा सके।शनि देव ने प्रसार के लिहाज से भी बजरंग बली के औसत को पीछे छोड़ दिया है।जहाँ बजरंगबली जैसे देवता गाँव देहात मेँ ओझरा के रह गये, शनिदेव ने बाजार की ताकत समझते हुए शहरोँ को अपना ठिकाना बनाया।वो जान गये कि जहाँ स्वार्थ है,सब पाने की बेचैनी है वहीँ अपना सिक्का जमेगा।इनके शहर मेँ बड़े मंदिरोँ के अलावा मोबाईल मंदिर भी चलते हैँ जो शनिवार के दिन हर लाल बत्ती पर लगाये जाते हैँ।चुँकि ये नये देवता हैँ सो ये खुद आम जन तक पहुँच अभी अपनी जड़ जमा रहे हैँ।इन्होँने एक लोकतांत्रिक माहौल दिया है धर्म के बाजार को।ये एक भिखारी को भी अचानक करोड़पति होने का भरोसा देते हैँ।कुंडली बाजार मेँ भी केवल शनि का जलवा है।जिस पंडित को पूछिए शनि का उपाय बतायेगा।अच्छा शनि देव ने भारतीय समाज के पुरातन मनोविज्ञान को समझते हुए तत्काल महिला द्वारा खुद को छुने पर पाबंदी रखी है।पर शनि का क्रेज देखिये कि धर्म और कर्मकांड मेँ विश्वास ना करने वाली प्रगतिशील पीढ़ी की एक युवती ने शिँगा मंदिर मेँ शनि देव पर तेल चढ़ा उनका श्रद्धा से मसाज करने का आंदोलन कर रखा है।ये दिवानगी तो सन्नी देओल और सलमान खान को भी कभी ना नसीब हुई।वैसे शनि देव आधुनिक समझदारी के देव हैँ।उम्मीद है बाजार मेँ महिला शक्ति के महत्व को देखते हुए वो जरूर नियम मेँ कुछ ढील देँगे और पुरूष संग महिलाएँ भी शनि देव के आँगन चिपचिपे श्रद्धा मेँ सने तेल तेल खेल पायेँगी।कुछ भी हो,शनि देव ने स्वर्ग मेँ लेटे अप्सराओँ का नृत्य देखते देवता और उनके सामंती और राजसी ढाँचे को तोड़ इसे चौक चौराहे और अंतिम आदमी तक पहुँचा दिया है।एक तीन चक्के की रेड़ी पर लोहे का एक पत्तर ले उसमेँ कटोरी भर तेल डाल ये चलता फिरता मंदिर आपको किसी भी रास्ते दिख जायेगा।इनका पंडा कोई तिलकधारी या टिक्कीधारी नहीँ,बल्कि किसी भी जात का सड़क का कोई भी आम आदमी हो सकता है।एक ग्रह से खुद को आगे ला अपने बलबुते और बेजोड़ प्रबंधन से देव मेँ बदल लेने शनिदेव की जीवटता को मेरा प्रणाम।असली मनुवाद तो यहाँ टूटा है मर्दे।जय शनिदेव।जय हो।