Friday, February 26, 2016

लोकतंत्र के मंदिर मेँ - A Journey Parliyament of india

पता नही क्या झक चढ़ा कि, कल पुरी रात यू-ट्यूब पे लोकसभा की कार्यवाही के कई कई सालोँ-दशकोँ पीछे के कई पुराने पुराने वीडियो खंगाल खंगाल देखने लगा।उन दशकोँ दशक पुराने कार्यवाहियोँ को देखने सुनते वक्त कई बार मन शांत हो जाता,कई बार झुम जाता।एक वीडियो मेँ देखा,अटल जी भाषण दे रहे हैँ..सामने दुसरे दल के कुछ सदस्य हल्की टोका टोकी कर रहे हैँ..इसी बीच विरोधी दल के चंद्रशेखर उठते हैँ और कहते हैँ"मैँ सदन से निवेदन करता हूँ कि माननीय अटल जी के बोलने के बीच इस तरह की टोकाटोकी ना करेँ,उनके भाषण का सदन लाभ ले।वे हल्ला और टोका टोकी के कारण पिछले 40 मिनट मेँ 20-25 मिनट ही बोल पाये हैँ।सदन से अनुरोध है कि अटल जी को धैर्यपूर्वक सुन लिया जाय"।ये बोल चंद्रशेखर बैठे और सदन किसी बौद्ध मठ के प्रार्थना घर की शांति मेँ तब्दील हो गया। यकिन मानिए ये पुरा दृश्य देख मेरे रोएँ खड़े हो गये,मुट्ठी बँध गई,आत्मा गुदगुदा गई,होँठोँ पर हल्की मुस्कुराहट तैरी और आँखोँ मेँ पता नहीँ खुद ब खुद पानी की बुँदेँ उतर आईँ।अब ना अटल जी की साफगोई और निडरता से कोई बोलने वाले रहे ना चंद्रशेखर की धीरता से सुनने वाले।नेहरू-लोहिया के पक्ष विपक्ष की जोड़ी तो देश के लोकतांत्रिक इतिहास मेँ तमाम अंतर्विरोधोँ के बाद भी लोकतंत्र के मंदिर मेँ बहस के संतुलन का सबसे चमकीला उदाहरण है ही..उस दौर पर क्या लिखना।अब लोहिया जैसे विचारोँ की आग है ना नेहरू जैसे धीर का दमकल साब,अब तो घर जलाने और दीये बुझाने वाले मिलते हैँ।ऐसे कई पुराने वीडियो देखना रात भर वैसा सुकून दे रहा था जैसे मैँ हनी सिँह,हिमेश रेशमिया और राधेश्याम रसिया के दौर मेँ चुपचाप आँखेँ बंद कर मुहम्मद रफी और किशोर के सदाबहार नगमेँ सुन रहा होऊँ।ये कौन सा दौर आ गया..संसद की कार्यवाही देखिये..कहीँ फुल भाव भंगिमा के साथ गर्जन सहित तीजन बाई का पांडवी गान तो दलेर मेँहदी टाईप बल्ले बल्ले का नगाड़ा छाप हल्ला।मेरे उमर के नौजवानोँ..एक बार पीछे का गीत सुन के देखिये,राजनीति की सुचिता,तथ्योँ की धार,बोलने की तासिर क्या होती है वहाँ पता चलता है।मैँ भाग्यशाली हूँ कि सूदुर गाँव मेँ पैदा हुआ,दिल्ली और संसद आँख से देख पाऊँगा इतना तक भी सोचा न था पर बचपन से अपने आस पास कुछ ऐसा माहौल रहा.. सुनता आया..लोहिया ऐसे बोलते थे..नेहरू ऐसे सुनते थे,जार्ज ऐसे बोलते थे,मधु लिमये का ये अंदाज था,अटल जी ऐसे बोलते हैँ,इनको और जार्ज जी को रेडियो छाती पर रख सुनता था।अब छाती खोल बोलते सांसद,छाती पीट चिल्लाते सांसद..आँखोँ से उतर जाते हैँ..छाती पर क्या रखे जायेँगे,सीने से क्या लगाये जायेँगे।जय हो।

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