Sunday, February 7, 2016

विश्व पुस्तक मेला

"विश्व पुस्तक मेला"..मेला मेँ जाईए और चुपचाप कोई कोना पकड़ आधा एक घंटा शांति से खड़ा हो पहले मेला देख लिजिए तब अपने काम मेँ लगिए।हॉल के अंदर घुस कोना पकड़ा ही था कि देखा एक नारंगी रेशमी धोती पहने धर्म विक्रेता अपने सतगुरू की लिखी किताब और सीडी लिए एक सज्जन को पकड़े पेल रहे हैँ"ये विज्ञान ने देश का कबाड़ा कर दिया,ये ईश्वर को नकारता है और पाप को बढ़ावा देता है।पश्चिमीकरण के कारण आज वेद और पुराण के चमत्कार को पीछे धकेल ये नकली लोग विज्ञान लेके आ गये हैँ।आप अपनी दिव्य परंपरा को फिर से जीवित कर भारत को विश्व गुरू बनाना चाहते हैँ तो ये किताब और ये सीडी लिजिए।आईए दो मिनट टीवी स्क्रीन पर उनकी अमृत वाणी सुन जाईए,चित्त को बड़ा आराम मिलेगा"।मैँ पीछे खड़ा था।बबवा का अमृत वचन कान मेँ तो अमृत की तरह गया पर जहर बन मेरे मुँह से निकला"अच्छा गुरू जी ये बताईयेगा जरा सा कि ये सीडी आपके गुरूजी के ज्ञान से बना है और ये टीवी स्क्रीन गुरूजी के ज्ञान से बना कि नकली पापी विज्ञान से?"इतना सुनना था कि वो बिना भड़के एक छेछड़ी मंद मुस्कान के साथ बोला"श्रीमान आप आगे निकल लेँ,मार्क्सवाद और कम्युनिज्म आगे के काउंटर पर बिक रहा।आपकी पसंद की चीजेँ वहाँ मिलेँगी।आप वहाँ चले जाईये।हमेँ अपनी बेचने दीजिए"।उसके इस शानदार बयान को स्वीकार कर आगे बड़ा था कि देखा एक काउंटर पर एक अधपके उम्र का आदमी एक हाथ मेँ चाय लिए बड़े कर्तव्य भाव से बाबा अंबेडकर पर लिखी किसी पुस्तक के पन्ने पलट रहे थे कि अचानक उन्हेँ किसी ने पीछे से धक्का दिया और वो अकबका के उछले और गर्म चाय उनके हाथ से टघरते टघरते पैँट होती हुई ऐँड़ी तक चली गई।वो बड़े सौम्य तरीके से चिचियाते झल्लाते हुए पीछे की तरफ ये बोलते हुए मुड़े"ओ सीट!किस मनुपुत्र ने धक्का मार जला दिया यार"।पीछे मुड़े तो अवाक् रह गये।ये उनका 10 वर्ष का बेटा था जो अपने बाप की बौद्धिक सनक का शिकार हो 6 घँटे से बाप के पीछे स्टॉल दर स्टॉल घुम रहा बच्चा था जो अब बाहर निकल कुछ खाना पीना चाहता था।"पापा अब चलो न भुख लगी है।कितनी देर रहोगे और।चलो न चलो न प्लीईईज पाअपा"।मुझे पहली बार समझ आया कि हर बार आदमी मनुपुत्र के हाथ ही नही जलता,कभी कभी अपना पुत्र भी जला देता है।थोड़ी देर मेँ देखा एक स्टॉल पर एक सज्जन बड़ी गंभीरता से किताबेँ छाँट रहे थे।उन्होँने पहले अब्दुल कलाम साब की अग्नि की उड़ान उठाई।फिर अमृत्य सेन की किताब,फिर नंदन नीलकेणी की,फिर एक किताब शशि थरूर की,आगे अंग्रेजी डेस्क पे गये और सलमान रूश्दी और अमिताभ घोष की दो किताबेँ उठाईँ।मैँ समझ गया आदमी तराशा हुआ बुद्धिजीवि है।सज्जन फिर सारी किताब रख वापस हिँदी डेस्क पर आये और आखिर मेँ एक किताब उठा कर बिल काउंटर पर रख दिया।मैँने जिज्ञासावश उछल कर झाँका कि आखिर इतना चमकीला बुद्धिजीवी क्या पढ़ता है देखुँ।किताब का नाम था"असाध्य रोग एवँ उसका निदान @लेखक हकीम तूफानी,डायमंड प्रकाशन।मैँ हक्का बक्का।तब जाना कि आदमी ऊपर से कितना भी टीप टॉप हो पर अंदर से बड़ा बीमार है।एक स्टॉल पर एक 75-76 के बुजुर्ग को देखा जो शायद किसी के सहारे लाये गये थे पर ज्ञान बटोरने की धीमी गति के कारण अकेले अपने भरोसे किताब खोजने छोड़ दिये गये थे।उन्हेँ अपने चश्मे सहित अलग से अतिरिक्त लेंस लिए पुस्तक खोजते देखा।उन्होँने पहले हास्य व्यँग्य की पुस्तक उठाई पर देख रख दिया।शायद ये सोच के कि बुढ़ापा अपने आप मेँ एक व्यँग्य है जिँदगी का।फिर उन्होँने ये सोच की बुढ़ापा आखिरी बचपन होता है उन्होँने एक बाल साहित्य उठाया।पर कुछ देर मेँ उसे भी रख दिया।अंत मेँ उन्होँने जो किताब फाईनल कर खरीदी उसे देख खोपड़ी घुम गई।किताब का नाम था"सक्सेस सीक्रेट"।अब तक सोच रहा हुँ कि उम्र के आखिरी पड़ाव पर उस बुढ़े बाबा को ऐसी कौन सी गुप्त विद्या चाहिए और कौन सी सफलता के लिए।ये बुढ़ापे का नहीँ जीवन का चरित्र है,साला जब तक रहेगा तब तक कुछ ना कुछ चाहिए।सफलता नशा है,किसी भी उम्र मेँ यूँ हल्के मेँ नही उतरती।जिसकी उतर जाती है वही भारी व्यक्तित्व हो मोक्ष पा लेता है।एक बार ये भी सोचा कि बुढ़वा बड़ा जीवट है क्या,इस उम्र मेँ भी ये जतन।खैर जीवटता हो या अतिलालसा,मैँ इतने मेँ चाय पीने बाहर आ गया हुँ।मैँ हिँदी का लेखक,हिँदी का लेखक भले दिमाग से भले प्रेमचंद ना हो पर पेट मेँ एक निराला लिये घुमता है।जी हाँ पेट मेँ भूख से शिराएँ मरोड़ मारती हैँ पर कुछ खरीद खाना मुश्किल है।अंदर डेढ़ सौ रू मेँ छोला भटुरा और सौ रू मेँ राजमा चावल मिलता है।अच्छा था निराला कि आपके समय मेँ कोई विश्व पुस्तक मेला ना था और न कोई प्रगति मैदान ही था..वर्ना जान लिजिए आप किसी मेले मेँ ही भुखे मरते।किसी अज्ञेय से असाध्य वीणा तो साधी जा सकती है पर बाजार को भेदना मुश्किल है।फिर हम हिँदी वाले लड़ रहे हैँ..कोशिश और संघर्ष जारी है।कल आखिरी दिन है।जाईये मेला घुम आईये।जय हो।

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