Wednesday, March 23, 2016

होली है

होली है!और होली मेँ किसी भी कीमत पर अपने गाँव से बाहर नही होना चाहता था पर जाने के भी सारे जतन कर लिये किसी भी कीमत पर जा भी नही पाया होली मेँ गाँव।होली जैसे खाँटी कादो-माटी-रंग वाले पर्व मेँ यहाँ दिल्ली जैसे धुल-धुँआ से बदरंग हुए महानगरोँ मेँ फँस जाना कचोटता तो है ही।न बातोँ मेँ रंग,ना आँख मेँ पानी..फिर भी होली है तो है ही यहाँ भी।अच्छा ऐसा कतई नहीँ है कि मुझे ये भ्रम है कि "गाँव की होली" कभी द्वापर युग मेँ कृष्ण के द्वारा खेली जाने वाली होली जैसी होती है और मेरा गाँव कोई गोकुल ग्राम या मथुरा सरीका है:-)।मुझे ये भी खुशफहमी नही कि,गाँव की होली सामाजिक समरसता का संदेश देती सच्चे भारत की मर्मस्पर्शी धारावाहिक टाईप होली होती है जहाँ हिँदु-मुस्लिम-सिख-ईसाई सब नाच नाच रंग उड़ा होली खेल रहे होँगे और मैँ दिल्ली मेँ बैठा उस अद्भुत् छटा का दर्शन करने से चूक गया हूँ और छटपट छटपट कर रहा हूँ सच्चे भारत के सच्चे गाँव जाने के लिए।यकिन मानिए कि हमरे गाँव जितना गाली गलौज और मार पीट होली मेँ होगा उतना सुडान मेँ गृहयुद्ध मेँ ना हो भैया।दारू पी जब बनिया, मारवाड़ी को गरियायेगा और बाभन सबको गरियायेगा तो ये मार्मिक दृश्य देख आप लजा जायेँगे।अच्छा मैँ इस टाईप का घिसा पिटा आउटडेटेड अफसोस भी नहीँ कर रहा कि,मुझे होली पर माँ के हाथोँ के बने पकवान याद आ रहे हैँ..अहा वो पूआ और अहा वो पिड़किया गुजिया और ठेकुआ।क्योँकि मेरे यहाँ ये एक परंपरा रही है कि किसी भी पर्व पर घर का कोई भी सदस्य खाना पकवान बनाने के रोजाना वाले चक्कर से मुक्त रहे और पर्वोँ पे मेरे यहाँ खाना बुलाये गये रसोईया लोग ही बनाते हैँ,जिसे ये शहर मेँ कैटरर कहा जाता है न।हाँ अगर आप पाक कला के शौकिन होँ तो उसका हाथ बँटा सकते हैँ पर खाना बनाना उस दिन रसोईये पर होता है।और तो और मेरी माँ खुद हमेशा फोन कर यहाँ दिल्ली के लिए भी कहती रहती है कि"कहीँ बढ़िया होटल मेँ जाके खाते पीते रहा करो,तरह तरह की चीजेँ खाते और खुद बनाने भी खीखते रहो,कुछ नया सीख आना तो फिर बनाना भी यहाँ"।घर पर माँ के हाथोँ का खाना खुब खाता हूँ,खुद भी बनाता हूँ,भाई भी बनाता है और बहनेँ भी।सो ये कोई बड़का अफसोस का मैटर नहीँ कि हाय रे होली का पकवान।माँ घर पर रहुँ तो हर दिन स्पेशल ही खिलाती है सो पर्व का इंतजार कम से कम खाने को तो नहीँ रहता।अच्छा फिर आखिर क्या है गाँव मेँ कि मन बेचैन हो जाता है ऐसे मौसम और पर्व मेँ गाँव जाने को।जी है कुछ।असल मेँ योजनाओँ का पैसा कितना भी हड़प लिया जाय,गाँव सड़क पानी बिजली बिना पीछे छुट जाये,लोग लड़े मरेँ या कटेँ,पढ़े ना पढ़ेँ..गाँव आपको मानव विकास सूचकांक मेँ शुन्य रेटिँग ही क्युँ ना दर्शाता हो पर आज भी गाँव के पास कुछ चीजेँ ऐसी है जो ना गाँव का मुखिया लुट पायेगा,ना नेता,विधायक,ना सांसद ना कोई अधिकारी ना कोई नक्सल।जी हाँ गाँव वाले घर के ठीक पीछे पलाश का जंगल,आम का पेड़ और उसमेँ फरे मंजर,उसपे बैठी कोयल,मेरे आँगन बेल का पेड़,नीम के पेड़ की साँय साँय हवा,शीशम की सुगंध,महुआ का पेड़,कचनार वाला फूल ये सब फागुन मेँ कैसे हो जाते हैँ ये फेसबुक पर लिखके बताना संभव नहीँ और इनसब को फागुन मेँ नजदीक जा के महसुस करना मेरे लिए क्युँ इतना जरूरी है ये शब्दोँ के मायाजाल से समझा पाना असंभव सा है।प्रकृति का ये जादू ना कवि मन की कल्पना है ना कलम की लफ्फाजी।सच कहता हूँ,घर के ठीक पीछे वाले पलाश के पेड़ोँ मेँ सारे पत्ते झड़ नीचे कालिन बिछा लेटे होँगे और पेड़ पर टेशू के दमकते लाल फूल ऐसे फूले होँगे मानो प्रकृति ने फाग मनाने के लिए लाल केसरिया शमियाना तान दिया हो।आम के गाछ पर आया मंजर ऐसे गमकता होगा जैसे प्रकृति इत्र छीँटक रही हो और उस मंजर वाले आमपत्ते के झुरमुट मेँ बैठी करिक्की कोयल कूहूँक कूहुँक "विविध भारती"गा रही होगी।सामने हाई स्कूल वाले अहाते मेँ शीशम का पत्ता झर झर कर "राग दुपहरिया" गाता होगा और कचनार के गुलाबी फूल गमक गमक कर खिलखिलाते होँगे।मेरे मुहल्ले से निकलते सटे ही आदिवासियोँ के मुहल्ले शुरू हो जाते हैँ और मिलने लगता है महुआ और सखुआ का बड़ा बड़ा गाछ..फिर पहाड़ तक जंगले जंगल।महुआ मेँ अभी धीरे धीरे फूल आया होगा..एक बार पुरवाई आती होगी तो आदमी नशे मेँ बिन प्याला मतवाला हो जाता होगा।मेरे आँगन मेँ ही बेल का गाछ है।आपने अगर बेल खाया हो और कभी उसकी खुशबु को भीतर खीँचा हो मान लिजिए की मुझे वो कस्तुरी से ज्यादा पागल करता है।अभिये से रोज पाँच सात बेल टप टप खुद ही गिरता होगा और छक के शर्बत चलता होगा घर मेँ।फागुन के ठीक बाद फाग खेला नीम भी कुछ दिन मीठा हो जायेगा जब चैत के आते उसमेँ हल्का हल्का ललहन लिये नरम नरम कोमल पत्तियाँ निकलेँगी।एक ऐसा मौसम जहाँ अभी "सुबह भीमसेन जोशी" और "शाम बिसमिल्ला खाँ" होती होँगी,उसे छोड़ ये दलेर मेँहदी के बल्ले बल्ले टाईप हल्ले गुल्ले जैसे दिन-रात वाले दिल्ली मेँ पड़ा हूँ तो भला काहे ना अफसोस करूँगा।पलाश का फूल पता नहीँ मुझे क्युँ इतना खीँचता है।मेरे बचपन का नाम भी कुछ दिन"पीपल पलाश" था।जब पलाश के पेड़ चढ़ डोल पत्ता खेलने लगा तो नीलोत्पल हो गया।पलाश,मंजर,महुआ शायद इसलिए भी मुझे खीँचते हैँ कि,किसी नक्सल के AK 47 की कोई गोली इन पलाश के फूल को ना झाड़ सकी आज तक,कोई सरकारी घोटाला आम का मंजर या महुआ का फूल नहीँ गटक सकता।हाँलांकि आम से लेकर महुआ और शीशम,सखुआ और सागवान सब लकड़ी माफियाओँ के हत्थे चढ़ कट भी रहे हैँ और काश हम इन्हेँ बचा पाते पर ये जहाँ जहाँ हैँ इनका जादू वही का वही है।हाँ,पलाश का जंगल अभी भी इन कसाईयोँ से बचा हुआ है।एक बार इन लकड़कट्टोँ को खोपचे मेँ लेने का मन है मेरा।कम से कम अपने ईलाके मेँ तो हड़काईये सकता हूँ।खैर जो भी हो..इन दिनोँ आपको पलाश के जंगलोँ को देखने झारखंड जरूर जाना चाहिए..तब मेरी बेचैनी आपको सहज समझ आती।मौका मिले तो देखिये जरूर एक बार आपसब जंगल मेँ जलते ये "पलाश के मशाल"।जय हो।

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