Wednesday, March 9, 2016

महिला दिवस- Women Day

बड़े वैचारिक ताम झाम एवं गंभीर विमर्शोत्सव के साथ कल "महिला दिवस"पर्व समाप्त हुआ।सबसे ज्यादा उत्सवधर्मिता फेसबुक पर दिखी जहाँ नारियोँ ने अपने लिए सेल्फ डिपेँडेँड पोस्ट लिखे और पुरूषोँ ने उनके लिए भरोसे भरा पोस्ट लिखा।कई पुरूष तो नारित्व के सशक्तीकरण को लेकर इतने भावुक थे कि वो उनसे लिपट जमाने से टकरा सारे हक छिन उनकी हथेली मेँ धर देना चाहते थे पर अफसोस कि फेसबुक पर ये भौतिक कांड संभव ना था।जी देखिये ह आज के युग मेँ पैदा हुए।हमने प्राचीन काल का वो दौर सपने मेँ भी नहीँ देखा जब किसी शास्त्र मेँ कहा गया कि विधवाओँ के सर मुंड देने चाहिए।हम मध्य काल के उस दौर की कल्पना से भी अछुते पीढ़ी के हैँ जब बादशाहोँ के मीना बाजार मेँ औरतोँ को बेचा जाता था और लोग मंडियोँ से जिँदा जिस्म खरीद ले जाते थे।हम सबने ये सब काला सच इतिहास की किताबोँ मेँ पढ़ा और अच्छा था कि पढ़ा जिससे हम जान पाये कि हम सभ्यता के विकास अब कितना आगे आ चुके हैँ,हमेँ ये आत्मविश्वास मिला कि हम अब उन बुराईयोँ से करोड़ोँ मील आगे निकल एक अच्छी दुनिया के रचे जाने के दौर मेँ हैँ और ऐसा रचा भी जा रहा है।हम आज के इंसा हैँ।पर ऐसा नहीँ कि हम शोषणविहीन दौर मेँ हैँ और हमने पीड़ा और अत्याचार ना देखा है।मैँ गाँव का आदमी ऊपर से बिना डिग्री का आम सोच का लड़का।हमारे लिए शोषण का अर्थ बस शोषण था और ये लिँगनिरपेक्ष था जिसमेँ हमने बाहुबली प्रमुखोँ के सामने एक गरीब आदमी को थुक चाटते भी देखा और किसी दरवाजे पर बाल खीँच लात खाती औरत को भी।हम ये कारण ना जाने कभी कि दोनोँ के हालात के पीछे इतिहास कितना है,क्या समाजशास्त्र है और कितना मनोविज्ञान है और कितना अर्थशास्त्र।ये सब कारण और कारक तो हम अब UPSC की तैयारी मेँ किताब पढ़ जाने और बस रट के याद रखा।हाँ हम जब भी किसी ठेला चलाने वाले को सिँह जी के हाथ लात खाते देखते तो एक बात ही दिमाग मेँ आती कि"क्या करियेगा..गरीब है ईहे खातिर कोय भी लतिया देता है"।उसी तरह जब किसी महिला को पीटाते देखते तो कहते"साला इसका मरद दोगला है,रोज दारू पी के कमीनापंती करता है।ना साला पढ़ा लिखा ना कोय संस्कार है इसको,जहाँ शिक्षा नय होगा उहाँ यही न होगा"।अच्छा हमने गाँव मेँ बस लात खाती महिलाओँ को नहीँ देखा बल्कि कुछ कमाल की लतियाती भी थीँ।इनके नाम से मुहल्ले की सीमाएँ हिलतीँ।एक थी "हुमड़ी माय",इसके खौफ का आलम वैसा था जैसे रामगढ़ मेँ गब्बर का।हुमड़ी माय के घर के बगल मेँ पड़ी जमीन आज तक उसका मालिक ना बेच पाया क्योँकि वो जाड़े मेँ दिन मेँ और गर्मी मेँ रात खटिया बिछा गदरगोष्ठी करती,सोती,गाय बाँधती।बात बात मेँ घर से हँसुआ निकाल जब साड़ी का फेँटा एक तरफ बाँध वो टॉरनेडो की रफ्तार मेँ गाली देती बाहर निकलती तो क्या मजाल कि कोई मर्द टिक पाये।गाली देने मेँ उतनी ओजस्विता मैँने दुसरी किसी मेँ न देखी।वो गालियोँ की मौलिक जन्मदात्री थी।उसके बनाये गये गाली आज भी समाज के बड़े बड़े झगड़ोँ मेँ सबसे ज्यादा काम आते हैँ। उसके विरूद्ध शिकायत की कोई सुनवाई प्रधान या प्रमुख भी नही करते क्योँकि वो दरवाजे पर चढ़ सीधे बोलती"आप हमरा फैसला का करियेगा परधान जी,आपका सब कारगुजारी खोल देँगे त मुँह अलकतरा जैसन करिया हो जायेगा"।मुखिया हाथ जोड़ कहते"हे चाची मार के इँटा माथा फोड़ दो पर इ बाप दादा और हमरी कहानी सुना इम्मेज ना तोड़ो।ऊका छोड़ दो"।एक बंगाली परिवार की मालकिन थी"जुबली देवी"।इनके पति पद्मनंदन मुखर्जी।अगर जुबली देवी ने पति को सुबह आठ बजे कुर्सी पर बैठने बोल दिया तो वो तब ही उठते जब जुबली देवी बोलतीँ"जाईए टिफिन हो गया।खाना खा लो"।मुखर्जी का किसी से झगड़ा हो जाय तो चश्मा सँभालते मोबाईल निकाल कहते"ठहरिये,आप हमको मारा।अभी बोलाता है हम आपना वाईफ को।तब बतायेगा तूमको ओकात मेरा"।इस बंगाली परिवार से गाँव के लोग दुर्गा पूजा का चंदा लेने भी कभी ना जाते और वो कहते"उसके घर का लिजिएगा चंदा महराज।ऊहाँ त साक्षात जिँदा भद्रकाली रहती है"।एक थीँ आँगनबाड़ी मेँ किसी तरह काम कर कमाती"गिरजा देवी"।इनके पति बेरोजगार।जब मूड खराब होता तो गिरजा देवी पति धरनीधर जी को उठा उठा के पटकतीँ।कई बार धरणीधर के रोटी गोल ना बेल पाने के कारण गिरजा देवी बेलना से धरणीधर को पीट लंबा सुला देतीँ।एक बार धरणीधर घर मेँ अकेले थे।अपने तमाम हमउम्र हाफ सेँचुरियन टीम को बुला वीसीडी पर गुड्डु रंगीला का भोजपुरी एलबम"पटाखा बा जवानी" देख रहे थे।तब तक गिरजा जी का अचानक प्रवेश हुआ।बुढ़वे साथी तो खिसक लिये पर झाड़ू से धरणी जी धर तब तक पीटा जब तक झाड़ू के सारे सिक ना झड़ गये।ये थीँ मेरी कुछ विलेज चैँपियन महाशक्तियाँ।सो हम संतुलित परिवेश मेँ पले बढ़े जहाँ नारी पिछड़े का शिकार तो है पर सहानुभूति की भुखी नहीँ,उसे किसी की दयाभीख ना चाहिए।उसमेँ ताकत है,हिम्मत है,जिद है,जज्बा है पर वो फिर भी गँगाजल के आभा माथुर की तरह सशक्त नहीँ।क्योँ?क्योँकि वो पढ़ के IPS थोड़े बन पायी।हूमड़ी माय,जुबली देवी,गिरजा देवी सब अपना घर चलाने वाली महिलाएँ थीँ,सबके पति निखट्टे नकारे।पर वो चंडिका की जगह समाज मेँ चंडाल कहाती हैँ,लोग परहेज करते हैँ उनसे।बस इसलिए कि वो पढ़ी लिखी ना थीँ।नही तो क्या पता कि उनमेँ से कौन आज किरण बेदी होती और उनके तेवर उससे भी ज्यादा धारदार।सो ये पुरी दुनिया अपने नारीवादी विमर्शोँ से नारी को कुछ दे ना दे ,इसे दे सकते हैँ वो माँ बाप जिनके घर मेँ बच्ची है और आपको तय करना है कि आप उसे घर बर्तन धुलवाना,खाना बनवाना चाहते हैँ या पढ़ा के मशाल बनाना।आप तय करेँगे कि आप उसे हुमड़ी माय बनाना चाहेँगे कि किरण बेदी।बाकि सब अधिकार है संविधान मेँ और जो बाकि है वो भी हो जायेगा,आप बस एक ही ध्येय बनाईये कि"बेटी को पढ़ाईए जरूर"।दहेज की जमा पूँजी शिक्षा मेँ लगा दीजिए।ना पढ़ाने के विध्वंस से अच्छा है पढ़ाने के खतरे उठाना।क्या पता शायद जरूरत ही ना पड़े दहेज की।उन तमाम माँ बाप को नमन जिनकी बच्चियोँ को मैँ देख रहा हूँ आँखोँ के सामने दिल्ली मेँ IAS की तैयारी करते।ये माँ बाप ही करेँगे आधी दुनिया को सशक्त,विचारक नहीँ।जय हो।

No comments:

Post a Comment