Tuesday, April 5, 2016

ये बच्चा जो नक्सली बन जाना चाहता है

एक दिन...किसी ऐसे गाँव से.. ऐसे बच्चे के लिए...."एक नक्सल हो चुकी कविता"-


ये बच्चा जो नक्सली बन जाना चाहता है,
असल मेँ खेलना चाहता है खाना चाहता है।।


आप इनके पेट मेँ गुदगुदी करके तो देखिये,
ये भी खुशी से लोट जाना चाहता है।।

इन्हेँ पुचकारिये और दुलार से सर पे हाथ रख तो पूछिए,
ये बहुत कुछ बताना चाहता है।।

इनके हाथोँ मेँ कुछ खिलौने धर के तो देखिये,
ये भी चाबी से गाड़ी चलाना चाहता है।।

इनके चेहरे से पोँछ कर देखिये मायूसी की धुल,
ये भी खिलखिला के मुस्कुराना चाहता है।।

आप बनवाईये तो इसकी खातिर कुछ पढ़ने वाली स्कूलेँ,
ये भी याद करके एक कविता सुनाना चाहता है।।

इसकी हाथोँ मेँ कलम तो धराईए साहब,
ये भी कुर्ते पर स्याही गिराना चाहता है।।

आप थमाईए तो इसे भरोसे की इक डोर,
ये बच्चा पतंग उड़ाना चाहता है।।

खेलिये तो बैठ कभी इसके संग भी अंताक्षरी,
ये भी अपने मन का कुछ गाना चाहता है।।

शाम तक पिता कुछ कमा कर घर तो लौटे,
ये भी जेब से चंद सिक्के चुराना चाहता है।

अपने पिता की छाती पर बैठ पीट जिद की ढोल,
ये भी तो चिप्स कुरकुरे मँगाना चाहता है।

आप दीजिए तो इसे चलने का कोई चौड़ा सा रास्ता,
ये बहुत दूर आगे तक जाना चाहता है।।

हम दे के तो देखेँ इसे हौँसलोँ के पंख,
ये भी आसमान मेँ उड़ जाना चाहता है।।

हम इसे दिखायेँ तो कि ये दुनिया खुबसूरत है,
ये भी फूलोँ से तितली उड़ाना चाहता है।।

इसने भी कर ली है आज जीत अपनी मुट्ठी मेँ,
ये भी दौड़ के अपनी माँ को बताना चाहता है।।

हम इनकी खातिर काश कुछ कर तो पायेँ पहले,
मुझे यकिन है ये कुछ कर दिखाना चाहता है।।

ये बच्चा जो....।


जय हो।


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